Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता. फेनपुञ्जेऽथवारम्भस्तम्भे सारः प्रतीयते । शरीरे न मनुष्याणां दुर्बुद्धे विद्धि वस्तुतः ||४२ || १७ . भाषार्थ - झाग के ( फेनके) पुंजविषै तथा केलिके थंभ विषै तौ कि सार प्रतीतिगोचर होय भी है अर इनि मनुष्यनिके शरीरविषै तौ किंचिन्मात्र भी सार नाहीं देखिये है. दुर्बुद्धि प्राणी तूं परमार्थथकी यहु जाणि भावार्थ - यह दुर्बुद्धि प्राणी मनुष्य के शरीरमें किछू सार जाणै है ताकूं कया है जो यामें किछू भी सार नाहीं है मृतक भये पीछें महम होय है कि भी अवशेष न रहै है यह प्राणी वृथा सारकी बुद्धि करे है | फेरि कहै हैं,यातायातानि कुर्वन्ति ग्रहचन्द्रार्कतारकाः । ऋतवश्च शरीराणि न हि स्वप्नेऽपि देहिनाम् ||४३| भाषार्थ – या लोकमें ग्रह चन्द्रमा सूर्य तारा बहुरि छह ऋतुए सारे जांय हैं आ हैं. ऐसे गमनागमन करे हैं. बहुरि प्राणीनिके शरीर हैं ते जे गये ते फेरि स्वप्नेविषै भी उलटे नाहीं आने हैं यह प्राणी वृथा इनिमूं प्रीति करै है | फेरि कहै हैं, ये जाताः सातरूपेण पुद्गलाः प्राङ्मनः प्रियाः । पश्य पुंसां समापन्ना दुःखरूपेण तेऽधुना ॥ ४४ ॥ भाषार्थ - या जगतविषे जे पुद्गलके स्कंध प्राणीनिके मनके For Private And Personal Use Only

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