Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 20
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. सुंदर दीखै अर तत्काल देखतां देखतां आपै आप विलय जाय है. यह ऐश्वर्यकी व्यवस्था है। फेरि अन्यप्रकार दृष्टान्त कहै हैं-- यान्त्येव न निवर्तन्ते सरितां यद्वदूर्मयः। तथा शरीरिणां पूर्वागता नायान्ति भूतयः ॥३७॥ भाषार्थ-जैसैं नदीनिकी लहरि हैं ते जाय ही हैं उलटी फेरि आवै नाहीं है. तैसैं प्राणीनिके पूर्व विभूति होय हैं ते नष्ट भये पीछे फेरि उल्टी नाही आवै हैं. यह प्राणी हर्ष विषाद वृथा करै है ॥ आगे फेरि याही अर्थकू सूचता कहै हैं,-- क्वचित्सरित्तरङ्गाली गतापि विनिवर्तते । न रूपबललावण्यं सौन्दर्य तु गतं नृणाम् ॥ ३८॥ भाषार्थ-नदीनिकी तरंगनिकी पंक्ति है सो कोई जायगां गई भी उल्टी आवै है अर मनुष्यानके रूप बल लावण्य सुन्दरपणा तौ गया पीछे उलटा बाहुड़े (लोटै) नाहीं है. यह प्राणी वृथा तिनिकी आशा लगाय राखै है ॥ आमैं फेरि आयु अर यौवनकी व्यवस्थाका दृष्टान्त कहै हैं,गलत्येवायुरव्यग्रं हस्तन्यस्ताम्बुवत्क्षणे। नलिनीदलसंक्रान्तं पालेयमिव यौवनम् ॥३९॥ अर्थ- प्राणीनिकै आयुर्वल है सो तौ हाथविषै क्षेप्या जलकी ज्यौं क्षणक्षणमें निरन्तर क्षरै ही है. बहुरि यौवन है OIN For Private And Personal Use Only

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