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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
फेरि प्राणीनिके अज्ञानकूं दिखावै हैं,
स्नग्धराछन्दः ।
भ्रूभङ्गारम्भभीतं स्खलति जगदिदं ब्रह्मलोकावसानं सद्ययन्ति शैलाश्चरणगुरुभराक्रान्तधात्रविशेन । येषां तेऽपि प्रवीराः कतिपयदिवसैः कालराजेन सर्वे नीता वार्ताविशेषं तदपि हतधियां जीवितेऽप्युद्धताशा
॥ १५ ॥
२५
भाषार्थ - जिसकाल रूपी राजाकार ऐसे सुभट भी केतेक दिननिकरि सर्व वार्ताविशेष कहिये जिनकी वार्त्ता मात्र ही सुणिये हैं अन्य किछू भी न रह्या तो हू हीनबुद्धि प्राणीनिके जीवनेविषै बडी आशा वर्ते है, यह बडी भूलि है. ते सुभट कैसे थे जिनकी के भंगके आरंभमात्रकार भयरूप भया यह जगत ब्रह्मलोकपर्यन्त चलायमान होय जाय. बहुरि जिनके चरणके बडे भारकरि दुबी जो पृथ्वी ताके वशकार पर्वत खंड खंड तत्काल होय जाय ऐसे सुभट भी कालने खाये तो अन्यके जीवनेमें कहा आशा ?
शार्दूलविक्रीडितम् ।
रुद्राशागजदेवदैत्यखचरग्राहग्रहव्यन्तरा दिक्पालाः प्रतिशत्रवो हरिबला व्यालेन्द्रचक्रेश्वराः । ये चान्ये मरुदर्यमादिबलिनः संभूय सर्वे स्वयम् नारब्धं यमकिङ्करैः क्षणमपि त्रातुं क्षमा देहिनः ॥ १६ ॥ भाषार्थ - रुद्र दिग्गज देव दैत्य विद्याधर जलदेवता ग्रह व्यन्तर दिक्पाल प्रतिनारायण नारायण बलभद्र धरणीन्द्र
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