Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. प्रातस्तलं परित्यज्य यथैते यान्ति पत्रिणः । स्वकर्मवशगाः शश्वत्तथैते क्वापि देहिनः ॥ ३१॥ भाषार्थ-बहुरि जैसे प्रभाति ही ते पक्षी तिस वृक्षकू छोडि कार कहूं जाय है तैसे ते प्राणी भी अपने २ कर्मके वशकार निरन्तर कहूं अपनी उपार्जी गतिकू चले जांय हैं । फेरि अन्यरीति कहै हैं--- गीयते यत्र सानन्दं पूर्वाह्ने ललितं गृहे । तस्मिन्नेव हि मध्याह्ने सदुःखमिहरुद्यते ॥ ३२॥ भाषार्थ-जिस घरविषै प्रभाति तौ आनंद सहित सुंदर गीत गाईये हैं तिस ही घरमैं मध्याह्नकालविषै दुःखसहित रोइये हैं. यह इस संसारवि विचित्रता है ॥ फेरि कहै हैं ---- यस्य राज्याभिषेकश्रीः प्रत्यूषेऽत्र विलोक्यते। तस्मिन्नहनि तस्यव चिताधूमश्च दृश्यते ॥ ३३ ॥ भषार्थ-या संसारविषै प्रभाति ही जाकै राज्यके अभिषेककी लक्ष्मी (शोभा) देखिये है तिस ही दिनविषै तिसहीकै रथीकी (चिताकी ) धूवां देखिये हैं. भावार्थ-प्रभाति तौ जाकै राज्याभिषेक होय अर तिस ही दिनविषै सो ही मरणकू प्राप्त होय है यह संसारकी विचित्रता है।। ___ फेरि शरीरकी व्यवस्था कहै हैंअत्र जन्मनि निर्धत्तं यैः शरीरं तवाणुभिः । प्राक्तनान्यत्र तैरेव खण्डितानि सहस्रशः ॥ ३४ ॥ For Private And Personal Use Only

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