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जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ हे आत्मन् ! या संसारविषै जिन परमाणूनि करि तेरा शरीर रच्या है तिनि ही परमाणूनिकरि इस संसारविषै पहले हजारबार खंड खंड किये हैं. भावार्थपुराणे परमाणु तौ खिरते जांय हैं नवे ग्रहण होते जांय हैं याते ते ही परमाणु तौ शरीरकू रचै हैं अर ते ही विगाड़नेवाले होय हैं. यह शरीरकी दशा है ।। फेरि कहै हैंशरीरत्वं न ये प्राप्ता आहारत्वं न येऽणवः । भ्रमतस्ते चिरं भ्रातर्यन्न ते सन्ति तदहे ॥३५॥
भाषार्थ हे भाई ! तेरै या संसारमैं बहुतकाल भ्रमतेके ने परमाणु शरीरपणाकून प्राप्त भये अर आहारपणाकून प्राप्त भये ऐसे परमाणु तिस शरीरके ग्रहणविषै नाहीं है. भावाथ-या शरीरविषै परमाणूं ऐसे नाहीं हैं जे पूर्व शरीररूप आहाररूपकार से नाहीं ग्रहण किये अर्थात् अनन्त प्रावर्तनमैं कईबार ग्रहणमैं आये हैं ।
आगें ऐश्वर्यआदिकी व्यवस्था दिखावे हैं। सुरोरगनरैश्वर्यं शक्रकार्मुकसन्निभम् ।
सद्यं प्रध्वंसमायाति दृश्यमानमपि स्वयं ॥३६॥
भाषार्थ-या जगत विषै सुर कहिये-देवनिका उरग कहिये भवनवासीनिका नर कहिये-मनुष्यनिका ऐश्वर्य-विभव इन्द्र क्रवर्तिपणा सो इन्द्रधनुषसारिखा है. दीखनेमैं अति
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