Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता. ११ भाषार्थ-~अविद्या कहिये मिथ्याज्ञान तातै भया जो परवस्तु विषै राग, ताका जो दुर्निवार फैलना ताकरि आधे किये जे प्राणी, तिनिकू निश्चयकरि नरक आदिकविषै बहुत कालपर्यन्त व्यथा पीडा सहनी होयगी, ताका प्राणीनिकू चेत ही नाहीं है। आगैं कहै हैं जो विषयनिविष सुख हेरै (ढूंदै ) है ते कहा करै हैं, वर्हि विशति शीतार्थ जीवितार्थ पिवेदिषम् । विषयेष्वपि यः सौख्यं अन्वेषयाति मुग्धधीः ॥२६॥ भाषार्थ-जो मूर्खबुद्धि विषयनिविषै सुख हेरै है सो शीतलताके अर्थिं अग्निमें प्रवेश करै है. बहुरि जीवनेके अर्थि विष पीवै है. भावार्थ-इस विपरीतबुद्धि” सुख तौ नाही पावैगा दुःखी ही होयगा ॥ __ आगैं जिनिके अर्थि पाप करै है तिनिकी रीति कहै हैंकृत येषां त्वया कर्म कृतं श्वभ्रादि साधकम् । त्वामेव यान्ति ते पापा वञ्चयित्वा यथायथं ॥ २७॥ भाषार्थ--हे आत्मन् ! जिनि कंटबादिकनिकै अर्थि तू नरकादिकका देनेवाला पापकर्म किया, सो वै पापी तोकू निश्चय ठिगिकरि अपनी अपनी गतिकू चले जाय हैं पापका फल तोहीकू भोगना पड़े है । आगें याकू करने योग्य उपदेश करै हैं,-- For Private And Personal Use Only

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