Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 14
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - द्वायशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता. ___ भाषार्थ हे आत्मन् ! पूर्व भवविषै जे बांधव थे ते या जन्मविषै वैरीपणा करि प्राप्त भये सन्ते क्रोध करि रुद्ध हैं रुके हैं नत्र जिनिक एसे भयेसन्ते तोडूं हणवकू उद्यमी होय हैं यह प्रत्यक्ष देखिये है ।। आगें कहै हैं एह प्राणी आन्धेकी ज्यों हैंअङ्गनादिमहापाशैरतिगाढं नियन्त्रिताः। पतन्त्यन्धमहाकूरे भवाख्ये भविनोऽध्वगाः ॥ २१ ॥ भाषार्थ-या संसार विषै जे प्राणी ते ही भये पथिक ( मुसाफिर ) ते स्त्री आदिक कुटुम्बरूपी पासीकरि अतिशय करि गाढे बँधे संसारनामा अन्धकूपविषै आंधेकी ज्यों पड़े हैं। जैसे-आंधा पुरुष गैलै (रस्त ) चालै तब अन्धकूपमें पड़े, तैसें ए प्राणी सूझते भी आंधेकी ज्यों संसारकूपमें पड़े हैं । आज फेरि उपदेश करै हैं,पातयन्ति भवावर्ते ये त्वां ते नैव वान्धवाः। बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिनः॥२२॥ भाषार्थ--हे आत्मन् ! जे तोकू संसाररूप भवनिविषै पटकै हैं ते तेरे बांधव नाही हैं किन्तु जे हित करें ते बांधव हैं. ऐसे बंधुपणा करनेवाले तेरा हित विचारि करै हैं ते योगीश्वर तेरे बांधव हैं. योगीश्वर प्राणीकू हितका उपदेश देकरि अज्ञान मेटि हितरूप स्वर्गमोक्षका मार्ग बतावै हैं ते सांचे बांधव हैं ॥ २२ ॥ For Private And Personal Use Only

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