Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit Author(s): Shubhchandracharya Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता. खोटी कला चतुराई शृंगारादि शास्त्रविद्या; तिनिके कुतूहल करि आत्माकं मति ठगावै, किन्छू तेरे करने योग्य हितरूप कार्य करि. यह समस्त जगतका वृत्त प्रवर्तना विनाशीक है, ताहि तू कहा नाहीं जाने है ? ऐसे स्वहित के विषै प्रेरणा है ॥ समत्वं भज भूतेषु निर्ममत्वं विचिन्तय । अपाकृत्य मनःशल्पं भावशुद्धिं समाश्रय ॥ ४ ॥ भाषार्थ – हे आत्मन् ! तू भूत- जे प्राणी जीव तिनिविषै समानपणाकूं सेय, सर्व प्राणीनिकूं आपसमान जाणि, बहुरि निर्ममत्वकूं चिंतत्रन करि, ममत्व छोड़ि . कहा करिकैं? मनकी शल्यकूं दूरि करिकैं- माया मिथ्या निदान शल्यकूं चित्तमैं मति राखै. बहुरि भावकी शुद्धताकूं अंगीकार करि, ऐसा उपदेश है ॥ ओंगें बारह भावनाका अंगीकारका उपदेश करे हैं, चिनु चिसे भृशं भव्य भावना भावशुद्धये । याः सिद्धान्तमहातन्त्रे देवदेवैः प्रतिष्ठिताः ॥ ५ ॥ भाषार्थ - हे भव्य ! तू भावना हैं तिनहि भावनिकी शुद्धता अर्थ मनव संचय करि, चितवनरूप करि. ते भावना कैसी? देवदेव जे तीर्थंकर देव तिनिनै सिद्धान्तके प्रबन्धविषै प्रतिष्ठारूप करी प्रसिद्ध करी ॥ ते भावना कैसी हैं For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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