Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit Author(s): Shubhchandracharya Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे. विषादरूप नाही करै है ? बहुरि यह शरीर है सो कहा रोगनि करि नाही छिदै है ? बहुरि मृत्यु है सो दिनप्रति तोकू ग्रासनकू कहा मुख नाही उघाड़े है ? बहुर आपदा हैं ते कहा नाहीं परिपूर्ण होय हैं अथवा कहा द्रोह नाहीं करै है ? बहुरि श्वन जे नरक, ते कहा भयानक नाहीं है ? बहुरि भोग हैं ते कहा सुपनेकी ज्यों तोडूं ठगनेवाले नाहीं हैं ? जाकरि तेरे अपने स्वार्थक् छोडिकरि इस किन्नरपुर इन्द्र जाल करिरच्या नगरसारिखे संसारविषै बांछा वत्र्ते है ? भावार्थ-संसार देह भोग• ऐसे देखकरि भी स्वार्थ विषै बांछा करै है ताका अज्ञानपणा दिखाया है ।। फिर भी या प्राणीकी भूलिदिखावै हैं, लोक. नासादयसि कल्याणं न त्वं तत्त्वं समीक्षसे । न वेत्सि जन्मवैचित्र्यं भ्रातोः भूतैर्विडम्बितः ॥२॥ भाषार्थ- हे भाई तू भूत जे इन्द्रियनिके विषय तिनिकरि विटंबनाकू नाही प्राप्त होय है, बहुरि तत्त्वकू नाही विचारै है. बहुरि जन्म जो संसार; ताका विचित्रपणाकू नाही जाणै है सो यह बड़ी भूलि है । असद्विद्याविनोदेन मात्मानं मूढ़ ! वञ्चय । कुरु कृत्यं न किं वेत्सि विश्ववृत्तं विनश्वरम् ॥३॥ भाषार्थ-हे मूढ प्राणी! असद्विद्या जो अनेक For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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