Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 11
________________ दध्वसंगह इस मत का खण्डन कर आ. नेमिचन्द्र ही प्रस्तुत ग्रंथ के रचयिता हैं, ऐसा डॉ. गोकुलचन्द जी ने सिद्ध किया है। [देखो - दध्वसंग्गह की प्रस्तावना] [प्रिय पाठक बन्धुओं! दोनों मतों के तर्क हमने परिशिष्ट-2 में दिये हैं, कृपया उन्हें आप अवश्य पढ़ें। - सम्पादक] ___ मैं इतिहासविद नहीं हूँ, अत: दोनों मान्यताओं में से कौन सी मान्यता सत्य है? इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता। दव्यसंगह की टीकाएँ : अवचूरि टीका के अतिरिक्त मेरे अध्ययन में इस ग्रंथ की दो टीकाएँ आयी हैं। 1. ब्रह्मदेव ने बारहवीं सदी में इस टीका का प्रणयन किया है। यह विस्तृत टीका है। 10वीं गाथा के व्याख्यान में समुद्धात का, 35वीं गाथा के व्याख्यान में अनुप्रेक्षा एवं लोक का विस्तार से वर्णन किया है। प्रत्येक शब्द का व्याख्यान और फिर उस का विशेष वर्णन करना, यह इस ग्रंथ का वैशिष्टय है। शंका-समाधान की शैली का प्रयोग अनेक जगह किया गया है। अनेक ग्रंथों के उद्धरण टीका में दिये गये हैं। संक्षिप्ततः इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यह टीका ग्रंथ के मर्म को हस्तगत करने में पूर्ण सहयोग प्रदान करती है। 2. पण्डित प्रवर जयचन्द छाबड़ा ने इस टीका का निर्माण श्रावण शुक्ला चतुर्दशी, वि.सं. 1863 में किया है। यह भाषा टीका पद्यानुवाद युक्त एवं अत्यन्त सरल हैं। उपसंहार : एक कार्य के सम्पन्न होने में अनेकों निमित्त कारणों की आवश्यकता होती है - यह सिद्धान्तवाक्य अक्षरशः सत्य है। प्रस्तुत संस्करण को तैयार करने में भी प्रत्यक्ष और परोक्षतः अनेक स्वाध्यायप्रेमियों का मार्गदर्शन, सहयोग, संशोधन प्राप्त हुआ है, जिन के प्रसाद से ही इस संस्करण को संशोधित रूप में पाठकों तक पहुँचाने का श्रेय प्रास हो रहा है, अत: सम्पूर्ण सहयोगियों को श्रुतचक्षुत्व की प्राप्ति हो, यही मंगल कामना। यह ग्रंथ भव्य जीवों को मोक्षपथ का प्रदर्शन करता रहे – यही भावना। (मुनि सुविधिसागर)

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