Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 25
________________ दवसंगह तत्केवलज्ञानम्। अत्र मतिश्रुते परोक्षे, अवधिमन:पर्यये देशप्रत्यक्षे, केवलं सकलप्रत्यक्षमिति। उत्थानिका : ज्ञान आठ प्रकार का होता है, ऐसा कहते हैं - गाथार्थ : [णाणं] ज्ञान [ अट्ठवियर्ण ] आठ प्रकार का है। [मदि] मति [ सुदि ] श्रुत [ ओही ] अवधि [अणाणणाणाणि ] अज्ञान और ज्ञान रूप हैं। [मणपज्जय ] मनःपर्यय [ केवलं ] केवलज्ञान। [अह] और [पच्चक्ख ] प्रत्यक्ष [च ] और [ परोक्ख ] परोक्ष [ भेयं ] भेद [से युक्त है।] ||5|| टीकार्थ : पाविज्ञान के नाम हैं। किस प्रकार? मदि सुदि ओही अणाणणाणाणि मणपजय केवलमह मति-श्रुत-अवधिज्ञान, कैसे हैं? अणाणणाणाणि अज्ञानसंज्ञक मतिश्रुतावधिज्ञान अर्थात् मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, अवधि अज्ञान यानि विभंगज्ञान तथा सम्यग्ज्ञान। मनःपर्यय और केवल। उस में विशिष्टमत्यावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण इन्द्रिय और मन से जो जानता है, वह मतिज्ञान है, उस के 336 भेद हैं। क्या विशेषता है? श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर कथन किये जाने वाले श्रुत को जो जानता है, वह श्रुतज्ञान है। उसे मतिज्ञानपूर्वक क्यों कहा गया है? जैसे अंकुर बीज पूर्वक होता है [ उसी प्रकार श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है ] उस के दो भेद हैं और अनेक भेद भी हैं। दो भेदों को कहते हैं - अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगबाह्य दशवैकालिक, उत्तराध्ययनादि अनेक प्रकार का है। सामायिक से पुण्डरीक तक चौदह प्रकीर्णक हैं। आचारादि 12 अंग रूप अंगप्रविष्ट है। पर्यायादि अनेक भेद हैं। विशिष्ट अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से मन के सानिध्य में जो सूक्ष्म पुद्गलों को जानता है, स्व और पर के पूर्व जन्मान्तरों को तथा भविष्यत् जन्मान्तरों को जानता है, यह अवधिज्ञान है। वह देशावधि, परमावधि और | 12

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