________________
दिव्यसंगह
से [ सव्वे ] सभी [हु] नियमत: [ सुद्धा ] शुद्ध [ विष्णेया ] जानने चाहिये ।। 13 ॥
:
टीकार्थ और वे जीव चौदह मार्गणाओं और गुणस्थानों के द्वारा जानने चाहिये। कौन से जीव? संसारी। कब ? असुद्धणया अशुद्धाय की अपेक्षा से। हु पुनः सव्वे सुद्धा सुद्धणया शुद्ध नय की अपेक्षा से सभी जीव शुद्ध हैं - अनन्तचतुष्टयात्मक हैं, यह अर्थ है ।
मार्गणाओं को कहते हैं
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहारक ये चौदह मार्गणाएं हैं।
यहाँ गत्यादि में जीवों का अन्वेषण किया जाता हैं।
गइ - देवगति- मनुष्य-नरक - तिर्यञ्च और सिद्धगति । इंदिया - एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय-पंचेन्द्रिय और अतीन्द्रिय
सिद्ध ।
-
काए- पृथ्वीकायिक- जलकायिक- अग्निकायिक-वायुकायिकवनस्पतिकायिक- सकायिक और अकायिक |
जोए - सत्यमनोयोगी, असत्यमनोयोगी, उभयमनोयोगी, अनुभवमनोयोगी, सत्यवचोयोगी, असत्यवचोयोगी, उभयवचोयोगी, अनुभयवचोयोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्र काययोगी, परमौदारिक काययोगी । मनुष्य और तिर्यचों को औदारिक काययोग होता है। मनुष्य और तिर्यंच अपर्यातकों को औदारिक मिश्र काययोग होता है। केवलियों को परमौदारिक काययोग होता है।
वैक्रियक काययोगी, वैक्रियक मिश्रकाययोगी। उस में देव नारकियों को वैक्रियक काययोग होता है। उन्हीं को ही अपर्यातक अवस्था में वैक्रियकमिश्र काययोग होता है।
32