Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 48
________________ दव्यसंगह त्रसवध से विरत, स्थावर वध से अविरत जीव संयतासंयतसम्यग्दृष्टि है। व्यक्त-अव्यक्त विकथा-कषाय-इन्द्रिय-निद्रा- प्रणय रूप प्रमाद के वश महावती प्रपत्तसंयत है। नष्ट हो चुके हैं सम्पूर्ण प्रमाद जिस के, ऐसे व्रत-शील से समन्वित, ध्यानोपयुक्त साधु अप्रमत्तसंयत हैं। जहाँ अतीत काल में स्थित परिणामों की अपेक्षा सर्वथा भिन्न परिणाम हैं, मोहनीय के उपशम या क्षपण में उद्यतता वह अपूर्वकरण हैं। वे उपशमक और क्षपक ऐसे दो प्रकार के हैं। एक समय में संस्थानादि परिणामों के द्वारा परस्पर में निवृत्ति को प्राप्त नहीं होते, वे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती हैं। वे उपशमक और क्षएक होते पूर्व-पूर्व की अपेक्षा से जिन का जैसे एकत्व है, उन से अनन्त गुण हीन सूक्ष्मलोभ में जो स्थित हैं, वे सूक्ष्मसाम्पराय हैं। वे उपशमक और क्षपक होते हैं। ___ कतक फल के संयोग से जल में कीचड़ नीचे बैठ चुका है, उसी प्रकार उपशान्त हो चुका है अशेष मोह जिन का, वे उपशान्त कषाय, वीतराग, छमस्थ हैं। छद्म यानि ज्ञानावरण और दर्शनावरण। उन का अस्तित्व है जिन में, वे छमस्थ हैं। स्फटिकमणि के बर्तन में स्थित निर्मल जल के समान जिन्होंने सम्पूर्ण मोह का क्षय किया है, वे विशुद्ध परिणामी क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ हैं। केवलज्ञान के प्रकाश से ध्वस्त किया है अज्ञान अन्धकार जिन्होंने, जो नव केवल लब्धियों से समन्वित हैं, द्रव्य मन-वचन-काय योग के सहयोग के विना ही जिन को लब्धियाँ, दर्शन और ज्ञान युगपत् होता है, वे सयोग केवली हैं। 1351

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