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दव्यासंगह
प्रमाणं जैनं वा, विमोह अनध्यवसायो गच्छत्तृणस्पर्शपरिज्ञानम्, विभ्रमः शुक्तिकारजतशकलं यद्विज्ञानमिति। तद् ग्रहणं किं विशिष्टम्? सायारमणेयभेयं तु, साकारं सविकल्पमवग्रहेहावायधारणारूपकमनेकभेदम् च। उत्थानिका : वह [सम्यग्ज्ञान] कैसा होता है? उसे कहते हैं - गाथार्थ : [संशय ] संशय [ खिोह ] विमोह [ विधम ] विभ्रम से [विवज्जियं] रहित [अप्पपरसरूवस्स ] स्व और पर स्वरूप का[सायार] आकार सहित [गहणं ] ग्रहण करना [ सम्मण्णाणं] सम्यग्ज्ञान है [ तु] और वह [ अणेयभेयं ] अनेक प्रकार का है।। 42 ॥ टीकार्थ : सम्मण्णाणं सम्यग्ज्ञान होता है। वह क्या है? गहणं ग्रहण, किस का? अप्पपरसरुवस्स आत्मा के स्वरूप का और परवस्तु के स्वरूप का, किस प्रकार से ग्रहण? संशयविमोहविभमविवजियं हरिहरादिकों का ज्ञान प्रमाण है या जैनों का? ऐसा संशय। विमोह - चलते हुए जीव को तृणस्पर्श के परिज्ञान की अनध्यवसायता, विभ्रम-शुक्ति [सीप] को रजत [चौंदी] के रूप में जानना। वह ग्रहण कैसे होता है? सायारमणेयभेये तु साकार यानि सविकल्प तथा अवग्रह, ईहा, आवाय और धारणा रूप अनेक भेदों वाला है। भावार्थ : विरुद्ध कोटियों में संस्पर्श करने वाला ज्ञान संशय है। अनिर्णयात्मक ज्ञान विमोह है तथा विपरीत कोटि को ग्रहण करने वाला ज्ञान विभ्रम है। इन तीन दोषों से रहित हो कर स्व-द्रव्य एवं पर-द्रव्यों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। वह सविकल्प एवं अनेक भेदों वाला है।। 42 ॥
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