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दव्यसंगह
टीका : तम्हा तत्तिदयरदा तस्मात् तस्त्रितयरता दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूपरता:, किमर्थम्? तल्लद्धीए तस्य रत्नत्रयस्य लब्धिस्तस्यैव अथवा तस्य परमपदस्य लब्धिः । सदा होह सर्वकालं भवत यूयम्। कस्मात्? जम्हा यस्मात्, चेदा झाणरहधुरंधरो हवे आत्माध्यानरथधुरन्धरो भवेत्। कथंभूतः? सन् तवसुदवदवं, तपः श्रुतव्रतवान्। उत्थानिका : महात्माओं को ऐसे रत्नत्रयात्मक भावों की भावना करनी चाहिये, ऐसा कहते हैं - गाथार्थ : [जम्हा] क्योंकि[तवसुदवदवं ] तप-श्रुत-व्रतसंपन्न [चेदा] आत्मा [झाणरहधुरंधरो] ध्यानरूपी रथ को धारण करने में समर्थ [ हवे ] होता है। [तम्हा ] इसलिए [ तलद्धीए] उस ध्यान की प्राप्ति के लिए [सदा] हमेशा [ तत्तिदयरदा ] उन तीनों में लीन [ होह ] होओ।। 57 ।। टीकार्थ : तम्हा तत्तिदयरदा इसलिए उन तीनों में लीन, दर्शन-ज्ञानचारित्रस्वरूप में रत, किस प्रयोजन के लिए? तलदीए उस रत्नत्रय की लब्धि अथवा उस परम पद की लब्धि। सदा होह आप को सर्वदा होवे। किसलिए? जम्हा इसलिए कि चेदा झाणरहधुरंधरो हवे आत्मा ध्यानरथ धुरंधर होता है। कैसा होता हुआ? तवसुदवदवं तप-श्रुत और व्रतवान्। भावार्थ : ध्यान रूपी रथ की धुरा को धारण करने में वही आत्मा समर्थ होता है, जो तप-श्रुत और व्रत को धारण करता है। इसलिए उस ध्यान को प्राप्त करने के लिए उन तीनों में [तप-श्रुत एवं व्रत] में तुम लीन होओ।। 57 ॥ पाठभेद : तत्तिदयरदा = तत्तियणिरदा ।।57॥ विशेष : उत्थानिका अशुद्ध प्रतीत होती है। उत्थानिकार्थ में उत्थानिका के केवल भावार्थ ही ग्रहण किया गया है।। 57॥ [सम्पादक]
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