Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 110
________________ दिव्यसंगह बोलो मत [ मा चिंतह ] चिंतन मत करो [ जेण ] जिस से [ अप्पा 1 आत्मा [ थ ] [ हो ] होता है | [ अ ] आस [[ अणम्मि ] आत्मा में [ओ ] रममाण होता है [ इणमेव ] यही [ परं ] परं [ झाणं ] ध्यान [ हवइ ] होता है ।। 56 ॥ टीकार्थ: मा चिट्ठह मा जंपड़ मा चिंतह किंचि आप अन्य कोई चेष्टायें मत करो, मत बोलो, चिन्तन मत करो। तो फिर क्या करें? कौन सी चेष्टा करें ? [ क्या बोलें ? ] क्या चिन्तन करें ? जेण होड़ थिरो अप्पा अप्यम्मि रओ जिस चेष्टा को करने से, बोलने से, चिन्तन करने से आत्मा आत्मा में निरत हो कर स्थिर होता है । कहा है कि - उसी का कथन करे, उसी के विषय में पूछे, उसी की इच्छा करे, उसी रूप हो जावे, जिस से अविद्यामय रूप से छूट कर विद्यामयता की प्राप्ति होवे । इणमेव परं हवे झाणं जिस से इन चेष्टादिकों से ध्यान होता है। भावार्थ : आत्मा में स्थिर होने के लिए अर्थात् परम ध्यान को प्राप्त करने के लिए सम्पूर्ण संकल्प - विकल्पों का परित्याग करना आवश्यक है। अतः ध्याता कुछ भी चिन्तन न करें, कुछ भी न बोलें और कोई भी चेष्टा न करें || 56 ॥ पाठभेद : किंचि हवई = किं वि हवे P उत्थानिका : महात्मनामिदं रत्नत्रयात्मका भवतां भव्या इत्याह गाथा : तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा । तम्हा तत्तिदरदा तलद्धीए सदा होह ॥ 57 ॥ || 56 || 97

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121