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दव्यासंगह। संस्कृत टीका के प्रकाशन के बाद टीका के सन्दर्भो के आधार पर द्रव्यसंग्रहकार को त्रिलोकसार आदि के कर्ता से भिन्न सिद्ध करने की शुरूआत हुई। अलग गुरु-शिष्य परम्परा का भी अनुमान किया गया, यहाँ तक कि 'तणुसुत्तधर' का अर्थ आंशिक श्रुतज्ञान का धारक न कर के 'अल्पज्ञ' अर्थ किया गया है। यहाँ इस विषय पर विस्तार से विचार करना उपयुक्त नहीं है, तथापि इस भ्रम के मूल कारण पर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है।
द्रव्यसंग्रह के संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेव ने टीका के प्रस्तावना वाक्य में लिखा है कि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने मालवा के धारा नगर के अधिपति भोजदेव के श्रीपाल नामक मंडलेश्वर के आश्रम नगर में मुनिसुव्रत चैत्यालय में सोम नामक राजश्रेष्ठी के निमित्त पहले 26 गाथाओं का लघु द्रव्यसंग्रह बनाया बाद में विशेष तत्त्वज्ञान के लिए बृहद् द्रव्यसंग्रह की रचना की। - ब्रह्मदेव ने अपनी इस जानकारी का कोई आधार नहीं दिया। 26 गाथाओं को लघुद्रव्यसंग्रह तथा 58 गाथाओं को बृहद्रव्यसंग्रह नाम भी ब्रह्मदेव का दिया हुआ है। लघुद्रव्यसंग्रह के नाम से वर्तमान में प्रचलित कृति के विषय में निम्नलिखित तथ्य विशेष रूप से ध्यातव्य हैं - 1. ग्रन्थकार ने इसे लघुद्रव्यसंग्रह या द्रव्यसंग्रह नाम न देकर 'पयस्थलक्खण'
कहा है। 2. इस की उपसंहार गाथा इस प्रकार है -
सोमच्छलेण रइया पयस्थलक्खणकराउगाहाओ। भव्युरयारणिमित्तं गणिणा सिरिणेपिचंदेण॥ इस गाथा में ग्रन्थ के नाम के साथ इस के कर्ता को नेमिचन्द्र गणि बताया गया है और 'सोमच्छलेण' पद के द्वारा सोमश्रेष्ठी का भी उल्लेख है। 3. इस ग्रन्थ की गाथाओं में से मात्र दो गाथाएँ (12, 14) पूरी तथा चार (811) का पूर्वार्ध 58 गाथाओं वाले द्रव्यसंग्रह की गाथाओं से मिलता है।
शेष सभी गाथाएँ भित्र हैं। 4. द्रव्यसंग्रह पर लिखी ब्रह्मदेव की वृत्ति विद्वत्तापूर्ण है, किन्तु इस बात से
इन्कार नहीं किया जा सकता कि द्रव्यसंग्रह को सोमश्रेष्ठी के निमित्त लिखे जाने का भ्रम 26 गाथाओं वाले नेमिचन्द्र गणि के पदार्थलक्षण' की उपर्युक्त गाथा से उत्पन्न होता है। दोनों की गाथाओं तथा ग्रन्थकर्ता को एक व्यक्ति