Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 105
________________ दष्यसंगह मुनिरहं एकः, जो अप्पं परं च जुंजइ य आत्मा परं च सम्बन्धं करोति। क्व? वीरियचारित्तवरतवायारे वीर्याचारचारित्राचारवरतपश्चरणाचारो, किं विशिष्ट :? दंसणणाणपहाणे दर्शनज्ञानप्रधाने, यत्र तस्मिन् दर्शनज्ञानप्रधाने दर्शनपूर्वकषु सिद्धिरिति भावः। उत्थानिका : अब आचार्य ध्येय हैं, ऐसा कहते हैं - गाथार्थ : [जो ] जो [ मुणी ] मुनि [ दंसणणाणपहाणं ] दर्शन और ज्ञान की प्रधानता सहित [वीरियचारित्तवरतवायारे ] वीर्य, चारित्र तथा उत्तम तपाचार में [अप्पं] स्वयं को [च] और [ परं] पर को [ जुंजइ] जोड़ते हैं [ सो ] वे [आइरिओ] आचार्य [ झेओ ] ध्येय हैं ।। 52 ॥ टीकार्थ : अप्पा आत्मा [इस शब्द का आध्याहार कर लेना चाहिये] झेओ ध्यान करना चाहिये, किस का? अप्पा स्वात्मा, किस प्रकार? क्या कह कर सो आइरिओ मुणी एक वह आचार्य मुनि मैं हूँ जो अप्पं परं च जुजइ जो आत्मा अन्यों का भी सम्बन्ध करता है। कहाँ? वीरियचारित्तवरतवायारे वीर्याचार, चारित्राचार, श्रेष्ठ तपश्चरणाचार, किस प्रकार? दंसणणाणपहाणे दर्शन और ज्ञानाचार से युक्त, ये दोनों प्रधान आचार हैं क्योंकि दर्शनाचार पूर्वक ही शेष आचार होते हैं।। 52 ॥ भावार्थ : जो दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार ये पाँच आचार हैं। इन का जो स्वयं पालन करते हैं एवं शिष्यों से पालन करवाते हैं - वे आचार्य हैं।। 52 ॥ उत्थानिका : इदानीमुपाध्यायो ध्येय इत्याह - गाथा : जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवएसणे णिरदो। सो उबझाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्म॥5॥ __ _92

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