Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 107
________________ दव्यसंगह। टीका : झेओ अप्पा इत्यध्याहार्य, झेओ ध्यातव्यः, कोऽसौ? स्वात्मा। किं स्वरूपो? भणित्वा। साहू समुणी साधुः सः मुनिः णमो तस्स नमस्कारोऽस्तु तस्मै, सः कः? जो हु साधयदि यः स्फुटं साधयति, किम्? चारित्तं चारित्रम्, कथंभूतम्? सुद्धं यथाख्यातम्, कदा? णिच्च सर्वकालम्। पुनः कथंभूतम्? दंसणणाणसमग्गं दर्शनज्ञानसंयुक्तम्, | पुनरपि कथंभूतम्? मग्गं मार्गम्, कस्य? मोक्खस्स मोक्षस्य। उत्थानिका : साधु ध्येय , ऐप कहते हैं - गाथार्थ : [ जो] जो [ मुणी ] मुनि[ हु]निश्चयतः[दसणणरणसमागं] दर्शन और ज्ञान से युक्त[ मोक्खस्स ] मोक्ष के [ मग्गं] मार्गस्वरूप[ चारित्तं] चारित्र को [ णिच्च ] सदा [सुद्धं ] शुद्धता से [ साधयदि ] साधते हैं [स] वह [ साहू ] साधु हैं [ तस्स ] उन्हें [ णमो] नमस्कार हो।। 54 ।। टीकार्थ : झेओ अप्पा [ऐसा अध्याहार कर लेना चाहिये] झेओ ध्यान करना चाहिये। ध्यान कौन करें? आत्मा। किस का? कहते हैं। साहू स मुणी साधु, वह मुनि णमो तस्स उस को नमस्कार हो, वह कौन है? जो हु साधयदि जो निश्चय से साधता है, किसे? चारित्तं चारित्र को। कैसे चारित्र को? सुद्धं यथाख्यात चारित्र को, कब? णिच्च हमेशा, पुन: कैसे हैं? दसणणाणसमग्गं दर्शन और ज्ञान से संयुक्त, और कैसे हैं? मग्गं मार्ग हैं, | किस के? मोक्खस्स मोक्ष के। भावार्थ : जो मुनिराज निश्चय से दर्शन और ज्ञान से संयुक्त हैं, जो मोक्षमार्ग में उपादेयभूत चारित्र की नित्य शुद्ध साधना करते हैं, वे साधु परमेष्ठी हैं। उन्हें हम नमस्कार करते हैं ।। 54 ॥ विशेष : टीका में जो "भणित्वा" पाठ है, हमारे दृष्टि में वह अशुद्ध है, उस स्थान पर "भगति" चाहिये।। 54॥ [सम्पादक] 94

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