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दव्यसंगल [पुरिसायारो] पुरुषाकार [ लोयसिहरत्थो] लोकाग्र शिखर पर स्थित [अप्या ] आत्मा [सिद्धो] सिद्ध हैं [झाएह ] तुम उन का ध्यान करो।। 51 || टीकार्थ : झाएह आप ध्यान करो, कौन हैं? अप्पा आत्मा, कैसा है? सिद्धो शरीर से रहित, पुनः कैसे हैं? लोयाग्गसिहरत्थो लोकाग्र शिखर पर स्थित हैं, और पास हैं? कामेधही अट कर्मों को नष्ट किया है जिन्होंने, ऐसे स्वरूप वाले हैं। पुन: कैसे हैं? लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा लोक के अन्दर में स्थित समस्त वस्तुओं के ज्ञाता एवं दृष्टा हैं। कैसा आकार ध्येय है? पुरिसायारो वे सिद्ध नित्य ही पुरुष के आकार के समान आकार को धारण करने वाले हैं। भावार्थ : जिन्होंने अष्ट कर्मों को नष्ट कर दिया है, जो अशरीरी हैं, जो लोकाग्र शिखर पर विराजते हैं, जो लोकालोक को युगपद् जानते व देखते हैं, जो पुरुषाकार को धारण करने वाले हैं, वे सिद्ध प्रभु ध्यान करने वाले ध्याता के लिए उत्तम ध्येय हैं।। 51 || विशेष : गाथा में लोयसिहरत्थो लिखा हुआ है, परन्तु टीकाकार ने लोयाग्गसिहरत्थो लिखा है।
लोयालोयस्स जाणओ दहा की टीका में केवल लोक का वर्णन किया है। सिद्ध प्रभु अलोकाकाशवर्ती आकाश को भी जानते हैं।। 51॥
उत्थानिका : इदानीमाचार्यों ध्येय इत्याह - गाथा: दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे।
__ अप्पं परं च जुंजइ सो आयरिओ मुणी झेओ॥ 52॥ टीका : अप्या इति अध्याहार्य: झेओ ध्यातव्याः, कोऽसौ? अप्पा स्वात्मा। कथंभूतः? किमितिभणित्वा, सो आइरिओ मुणी स आचार्यो
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