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दव्यसंगत
इसलिए [ तत्तियमइओ] उन त्रितयात्मक [ आदा] आत्मा [हु] ही [ मोक्खस्स ] मोक्ष का [ कारणं ] कारण [ हवदि] होता है। 401 टीकार्थ : तम्हा तत्तियमइओ हवदिहु मोक्खस्स कारणं आदा इसलिए उन त्रितयात्मक अर्थात् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप आत्मा निश्चय से मोक्ष का हेतु होता है। "इसलिए ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि रयणत्तयं ण वट्टइ रत्नत्रय नहीं रहता है। कहाँ नहीं रहता है? अण्णदवियम्मि अन्य शरीरादिक द्रव्य में। क्या कर के? अप्याण मुइत्तु आत्मा को छोड़ कर के, आत्मा का त्याग कर के रत्नत्रय परद्रव्य में नहीं रहता है। भावार्थ : रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन -ज्ञान -चारित्र आत्मा के अनुजीवी गुण हैं। आत्मा के अतिरिक्त वे गुण किसी भी द्रव्य में नहीं पाये जाते। जब उन तीनों की पूर्णता आत्मा में हो जाती है, तब आत्मा मोक्ष को प्राप्त करता है। अत: निश्चय नय की अपेक्षा से त्रितयात्मक आत्मा ही मोक्ष का कारण है।1 40॥ पाठभेद: हवदि
होदि मोक्खस्स - मुक्खस्स ।।40॥
उत्थानिका : रत्नत्रयस्वरूपमाह -
गाथा : जीवादीसहहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु।
दुरभिणिवेसविमुलं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि ।। 41 ।। टीका : सम्मत्तं सम्यक्त्वं भवति। किं तत्? जीवादीसहहणं जीवादीनां श्रद्धानरुचिः, रूपमप्पणो तं तु तत् सम्यक्त्वं पुनरात्मनो रूपं नान्यस्य। णाणं सम्म खुहोदि सदि जम्हि-स्व-परपरिच्छेदकं ज्ञानं नियमेन भवति यस्मिन्सम्यक्त्वे सति। किं विशिष्टं ज्ञानम्? दुरभिणिवेसविमुक्वं,
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