Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 100
________________ Mo दव्यसंग मुज्झह मा मोहं गच्छत, मा रज्जह मा रागं कुरुत, मा रूसह मा रोषं कुरुत, केषु विषयेषु ? इणिअत्थेसु इष्टानिष्टार्थेषु । उत्थानिका : अब आचार्य शिष्यों को शिक्षा देते हुए कहते हैं गाथार्थ : [ विचित्तझाणप्यसिद्धीए ] विचित्र ध्यान की प्रसिद्धि के लिए [ जइ ] यदि [ चित्तं ] चित्त को [ थिरं ] स्थिर करने की [ इच्छह ] इच्छा करते हो तो [sgfugअत्थेसु ] इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में [ मा मुज्झह ] मोह मत करो [ मा रज्जह ] राग मत करो [ मा रूसह ] रोष मत करो ।। 48 ॥ टीकार्थ: अहो शिमिन्द्रा चिराणसीए चित्त को स्थिर करना चाहते हो, किसलिए ? विचित्र ध्यान की सिद्धि के लिए, तब मा मुज्झह मोह को प्राप्त मत होओ। मा रज्झह राग मत करो। मा रूसह रोष मत करो। किन विषयों में? इणिअत्थेसु इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में। भावार्थ : मन की स्थिरता के लिए आवश्यक है कि चंचलता के कारणभूत संकल्प - विकल्पों में मन को लीन नहीं करें। संकल्प-विकल्पों से बचने के लिए इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में राग- मोह एवं रोष नहीं करना चाहिये। मन के स्थिर होने पर ही ध्यान की सिद्धि होती है । 48 ॥ पाठभेद : मा रूसह अत्थे = = मी दुसह sgfug अट्ठेसु 87 उत्थानिका : साम्प्रतं जपध्यानयोः क्रममाह गाथा : पणतीससोलछप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवर सेण ॥ 49 ॥ || 48 || - | I 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121