Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 93
________________ दव्यसंग्रह उत्थानिका : मत्यादिभेदाद्दर्शनज्ञानयोः को भेद इत्याह - गाथा : जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं। अविसेसऊण अढे दसणमिदि भण्णए समए॥43॥ टीका : सणमिदि भण्णये समए तईशनमितिहेतोभण्यते। क्व? समये जिनागमे। तत्किम्? जं सामण्णं गहणं यत् सामान्यग्रहणं वस्तुसत्तावलोकनं करोति । केषाम्? भावाणं पदार्थानाम्, किं त्यक्त्वा? अविसेसऊण अढे - अविशेष्यार्थान् भेदमकृत्वा इदं कृष्णमिदं नीलमित्यादिपरिच्छित्तिम्। अत्राह परा ननु दर्शनं तावत्स्वभावभासकं ज्ञानं च परार्थावभासकं भिन्नानां भावानां सामान्यग्रहणमिति, दर्शनस्य कथं घटते? यतस्तदवलोक ने ज्ञानस्य प्रयोजनम्। अत्र निराकरणार्थमिदमाह, णेव कटुमायारं यतो दर्शनम्, प्रथमसमये नैव कर्तुं शक्नोति, भेदमित्थभूतमिति, जलस्नानोत्थितपुरुषसम्मुखवस्त्ववलोकनवत्। अतो दर्शनं भण्यते किंचिदन्ये तत्प्रयोजनं ज्ञानस्य न पुनः वस्तुसंज्ञावलोकनम्, तस्मात्स्वपरावभासकं दर्शनं किन्तु निर्विकल्पं ज्ञानं पुन: स्वपरावभासकं यत: अवग्रहेहावायधारणाग्रे समुत्पद्यन्ते। उत्थानिका : मत्यादि के भेद से दर्शन और ज्ञान में क्या भेद है? उसे कहते हैं - गाथार्थ : [ अटे] पदार्थ के [ अविसेसऊण] विशेष अंश को ग्रहण किये विना [ आयारं ] आकार को [व] नहीं [कट्ट] कर के [ भावाणं] पदार्थों का[जं] जो [ सामण्णं ] सामान्य [ गहणं ] ग्रहण करना[दसणं] दर्शन है [इदि] ऐसा [ समए ] शास्त्र में [ भण्णए] कहा है। टीकार्थ : दंसमिदि भण्णए समए वह दर्शन है, ऐसा कहा गया है। | 80

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