________________
दवसंग सम्यक् रूप से क्रिया का आचरण समिति है, वे भी पाँच हैं। सम्यक् प्रकार से योग का निग्रह करना गुसि है, वे तीन हैं। इस प्रकार व्यवहार चारित्र तेरह प्रकार का हैं।। 45 ।।
उत्थानिका : इदानीं सम्यक् चारित्रमाह - गाथा : बहिरभंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासठें।
णाणिस्स जं जिणुत्तं तं सम्म परमचारित्तं ॥ 46।। टीका : तं सम्म परमचारित्तं तत्सम्यक्परमचारित्रं भवति। किं विशिष्टम्? जिणुत्तं जिनैः प्रतिपादितं चारित्रम्। कस्स? णाणिस्स ज्ञानिनो यथाख्यातमित्यर्थः। तत् किम्? जं बहिरब्धंतरकिरियारोहो यद्बाह्याभ्यन्तरक्रियारोधः। तत्र बाह्यो व्रताचरणादयः, आभ्यन्तरे व्रती शीलवानित्यादयः किमर्थं क्रियारोधः? भवकारणप्पणासवें संसारोत्पत्तिविनाशार्थम्। गाथा - णिज्जियसासो णिप्पंदलोयणो मुक्कसयलवावारो। जोण्हा वच्छगओ सो जोई णत्थि त्ति संदेहो॥
इत्यर्थ : उत्थानिका : अब सम्यक् चारित्र को कहते हैं - गाथार्थ : [भवकारणप्पणासट्ट] भवकारणों के विनाशार्थ [णाणिस्स] ज्ञानी का [जं] जो [बहिरभंतर किरिया रोहो ] बाह्याभ्यंतर क्रिया का रोकना [तं] वह [ जिणुतं ] जिनेन्द्रकथित[सम्मं] सम्यक्[ परम चारितं] श्रेष्ठ चारित्र है। टीकार्थं : तं सम्मं परमचारित्तं वह सम्यक् परम चारित्र होता है। उस