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सव्वसंगह
संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं दर्शने सति यज्ज्ञानमुत्पद्यते। उत्थानिका : रत्नत्रय का स्वरूप कहते हैं - गाथार्थ : [ जीवादीसदहणं ] जीवादिकों का श्रद्धान करना [सम्मत्तं] सम्यक्त्व है। [तं] वह [ अप्पणो] आत्मा का [ रूवं ] रूप है। [तु] और [ जम्हि ] जिस के [ सदि] होने पर [ दुरभिणिवेसविमुक्कं ] कुअभिनिवेश से विमुक्त [ सम्मं] सम्यक् [णाणं ] ज्ञान [खु] नियम से [होदि] होता है।। 41॥ टीकार्थ : सम्मत्तं सम्यक्त्व होता है। क्या होता है? जीवादीसदहणं जीवादिकों का श्रद्धान, रुचि रूवमप्पणो तं तु पुनः वह सम्यक्त्व आत्मा का ही रूप है, अन्य का नहीं। णाणं सम्मं खुहोदि सदि जम्हि जिस के अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर स्व पर का बोध कराने वाला ज्ञान नियम से होता है। कैसा है वह ज्ञान? दुरभिणिवेसविमुक्नं दर्शन होने पर संशय-विमोहविभ्रम से रहित ज्ञान उत्पन्न होता है। भावार्थ : जीवादि सप्ततत्त्व, नत्रपदार्थ, षद्रव्य अथवा पंचास्तिकायों का श्रद्धान करना, सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन आत्मा का स्वरूप है। सम्यग्दर्शन के होने पर ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान हो जाता है।। 41 ॥
उत्थानिका : तत्कथंभूतमित्याह - गाथा : संसय-विमोह विब्भम-विवजियं अप्यपरसरुवस्स।
गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु॥42॥ टीका : सम्मण्णाणं सम्यग्ज्ञानं भवति। किं तत्? गहणं ग्रहणम्। कस्य? अप्पपरसरूवस्स आत्मनः स्वरूपस्य परवस्तुनः स्वरूपस्य, कथंभूतं ग्रहणम्? संसयविमोहविभमविवज्जियं, संशयः हरिहरादिज्ञानं