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दव्यसंगह। मन-वचन-काय के भेद से गुप्ति के तीन भेद हैं।
उत्तम क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन्य और पर्य ये : धर्म हैं।
अनुप्रेक्षाएं 12 जाननी चाहिये - अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आत्रय, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म।
परीषह जय के 22 भेद हैं - क्षुधा-पिपासा-शीत-उष्ण-दंशमशकनाग्न्य, अरति-स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या-आक्रोश-वध-याचना-अलाभ-रोगतृणस्पर्श मल-सत्कार-पुरस्कार-प्रज्ञा-अज्ञान और अदर्शन]
चारित्र के 13 भेद हैं – हिंसा-झूठ-चोरी-कुशील-परीग्रह से विरति रूप पाँच प्रकार के व्रत-समता-स्तुति-वंदना-प्रतिक्रमण-स्वाध्याय--प्रत्याख्यान ये छह आवश्यक तथा अः सही और निःसही। भावार्थ : 5 व्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति, 10 धर्म, 12 अनुप्रेक्षा, 22 परीषहजय, 13 चारित्र ये सब द्रव्यसंवर के कारण हैं।। 35॥ पाठभेद : णादव्या = णायव्वा।
दव्वसंवरविसेसा = भावसंवरविसेसा। ॥35॥ विशेष : गाथा में वद शब्द है। टीकाकार ने वद शब्द स्वीकार किया है किन्तु वर्णन तप का किया है।
तप संवर व निर्जरा का विशेष कारण है, परन्तु गाथा में वद के स्थान पर तप का वर्णन किया जाना आश्चर्यकारी है।। 35 ।।
उत्थानिका : साम्प्रतं निर्जराभेदद्वयमाह - गाथा : जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ।। 360
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