Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ दव्वसंगह उत्थानिका : इदानीं मोक्षस्वरूपमाह - गाथा : सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । ओस भावमुक्खो दव्यविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥ 37 ॥ टीका : णेओ स भावमुक्खो स भावमोक्षो ज्ञेयः । परिणाममोक्षः, सः कः? जो अप्पणो हु परिणामो आत्मनश्चारित्रावरणीयक्षयात् यः समुत्पद्यते निर्मलपरिणामः, स भावमोक्ष इति । दव्वविमुक्खो कम्मपुभावो द्रव्यमोक्षस्य, पुनः कर्मभावसकाशादात्मनः पृथग्भावः शुद्धचैतन्यरूपाव- स्थितिरित्यर्थः । उत्थानिका : अब मोक्ष के स्वरूप को कहते हैं — गाथार्थ : [ जो ] जो [ अप्पणो ] आत्मा का [ परिणामो ] परिणाम [ सव्वस्स ] सम्पूर्ण [ कम्मणो ] कर्मों के [ खयहेदू ] क्षय का हेतु है [स] वह [ हु ] निश्चयत: [ भावमुक्खो ] भावमोक्ष है [य] और [ कम्मपुहभावो ] कर्म का पृथक् होना [ दव्वविभुक्खो ] द्रव्य मोक्ष [ णेओ ] जानना चाहिये || 37 ॥ टीकार्थ: णेओस भावमुक्खो उसे भावमोक्ष जानो, परिणाममोक्ष जानो, वह कौन ? जो अप्पणो हु परिणामो आत्मा के चारित्र मोहनीय के क्षय से जो निर्मल परिणाम उत्पन्न होता है, वह भावमोक्ष है । दव्यविमुक्खो कम्मपुहभावो पुनः कर्मभाव का आत्मा से पृथक् हो जाना अर्थात् शुद्ध चैतन्य स्वरूप में आत्मा की अवस्थिति द्रव्यमोक्ष हैं। 73 उन भावार्थ : जिन परिणामों से सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है, परिणामों को भावमोक्ष कहते हैं। कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना, द्रव्यमोक्ष है || 37 |

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121