Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 87
________________ दव्यसंगह = पाठभेद : ओ यो ।। 37 ॥ ||37॥ उत्थानिका : इदानीं पुण्यपापस्वरूपमाह - | गाथा : सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। सादं सुहाउणामं गोदं पुण्णं पराणि यावं च ॥38॥ टीका : पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा पुण्यं पापं चानुभवति, खलु स्फुटं, के ते? जीवाः, कथंभूतः सन्तः? सुह-असुहभावजुत्ता शुभाशुभपरिणामयुक्ताः शुभएरिणामातगुण्यं मम गरिरपा प्रानुवन्ति। पुण्यस्य कानिचित्कारणानीत्याह । सादं सुहाउणामं गोदं सातावेदनीयं शुभायुर्नामगोत्रम्, एतैलैिर्युक्तं पुण्यम्। पापस्य कानि? पराणि पावं च असाताशुभायु मगोत्राणि पापं च स्फुटम्। उत्थानिका : अब पुण्य और पाप के स्वरूप को कहते हैं - गाथार्थ : [सुह ] शुभ [ असुह ] अशुभ [भावजुत्ता] भाव से युक्त [जीवा ] जीव [खलु] निश्चय से [पुण्णं] पुण्य [पावं ] पाप रूप [हवंति ] होते हैं। [ सादं ] साता वेदनीय [ सुहाउ ] शुभायु [णाम ] शुभ नाम [ गोदं] शुभ गोत्र [ पुण्णं] पुण्य है [च ] और [ पराणि] अन्य [ पावं ] पाप है।। 38 ॥ टीकार्थ : पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा पुण्य और पाप का अनुभव करता है, खलु निश्चय से, वे कौन? जीव। कैसे होते हुए? सुह असुह भावजुत्ता शुभाशुभ परिणाम से युक्त, शुभ परिणाम से पुण्य व अशुभ परिणाम से पाप का अनुभव करता है। पुण्य के क्या कारण हैं? सो कहते हैं - सादं सुहाउ णामं गोदं सातावेदनीय, शुभायु, शुभनाम, शुभ गोत्र इन । - - - - - - -

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