Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal
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दव्यसंगह टीकार्थ : सो भावसंवरो खलु वह भावसंवर हैं। खलु निश्चय से। यह । कौन? चेदणपरिणामो जो चैतन्य परिणाम अर्थात् स्व-स्वरूप परिणति। । किस प्रकार? जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू आते हुए कर्मों के आस्रव निरोध का हेतु, वही चैतन्यपरिणाम। दव्वासवरोहणे अण्णो द्रव्यास्रव का निरोध करना, द्वितीय संवर है। भावार्थ : जिन चैतन्यमयी परिणामों से कर्म का आना रुक जाता है, उन परिणामों को भावसंवर कहते हैं। द्रव्यास्त्रव का निरोध होना, द्रव्यसंवर है।। 34॥
उत्थानिका : तस्यैव निरोधने विशेषमाह - गाथा : वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहापरीसहजओ य।
चारित्तं बहुभेया णादव्वा दव्यसंवरविसेसा॥35॥ टीका : णादव्वा दव्वसंवरविसेसा द्रव्यसंवरविशेषा ज्ञातव्याः। कतिसंख्योपेता? बहु भेया बहु भेदाः। के ते? इत्याह-वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य चारित्तं च तपः समितिगुप्तिः धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयश्चारित्रं च। तत्र तपो द्वादशप्रकार बाह्याभ्यन्तरभेदात्, अनशनमवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यानं, रसपरित्यागः, विविक्तशय्यासनं, कायक्लेशो बाह्यं तपः षड्विधम्। प्रायश्चित्तं, विनयं, वैयावृत्यं, स्वाध्यायः व्युत्सर्ग, ध्यानं चाभ्यन्तरतप: षड्विधम्, समितयः पञ्चप्रकाराः, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण व्युत्सर्गश्चेति । गुप्तयस्त्रिप्रकारा: मनोवचन-कायरूपाः। धर्मों दशप्रकारा: उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमस्तपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि

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