Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 81
________________ दत्रसंगह पाठभेद: हुंति = होति। ॥33॥ विशेष : मेरे विचारानुसार टीका में "तन्त्र ज्ञानावरणादिकर्मप्रकृतीनां बन्यः" क बाद "प्रदेशमायः यह सब, आरण्यक है। स्थितिबन्ध के प्रकरण में "स्थितिरित संख्या" के स्थान पर "स्थितिरिति संज्ञा" ऐसा होना चाहिये। योग चाहे शुभ हो या अशुभ, दोनों से ही प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है। अतः टीका में "अत्राशुभमनोवचनकायेभ्यः" इस पाठ के स्थान पर 'अत्र शुभाशुभमनोवचनकायेभ्यः" यह पाठ शुद्ध जान पड़ता है। [सम्पादक] || 33 ।। उत्थानिका : इदानीं संवरस्य भेदट्यमाह - गाथा : चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू। सो भावसंवरो खलु दव्यासवरोहणे अण्णो॥34॥ टीका : सो भावसंवरो खलु स भावसंवरो भवति, खलु स्फुटम्, स क? चेदणपरिणामो यश्चैतन्यपरिणामः स्वस्वरूपपरिणतिः। कि विशिष्ट :? जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू समागच्छतः कर्मणः आस्रवनिरोध-हेतुः, स एव चैतन्यपरिणामः दव्वासवरोहणे अण्णो द्रव्यास्रवरोधनेऽन्यो द्वितीयः। उत्थानिका : अब संवर के दो भेदों को कहते हैं - गाथार्थ : [जो ] जो [चेदण परिणामो ] चैतन्य परिणाम [ कम्मस्स] कर्म के [आसवनिरोहणे ]आस्रव के निरोध का [ हेदू ] हेतु है [ सो ] वह [भावसंवरो] भावसंवर है। [दव्वासवरोहणे ] द्रव्यास्त्रव का निरोध[खलु] | निश्चयतः [अण्णो ] द्रव्यसंवर है।। 34 ।।

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