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दव्यसंगह आस्रव का निरोध संवर है। कर्म का एकदेश क्षय होना, निर्जरा है। सम्पूर्ण कर्म का क्षय होना, मोक्ष है। व्रत का परित्याग नहीं करना, पुण्य हैं।
मिथ्यात्व में प्रवर्तन करना, पाप है। भावार्थ : पदार्थ नौ होते हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप। जीव और अजीव की ये सब पर्यायें हैं।। 28 ॥ पाठभेद : पभणामि . पभणामो। । 28 ||
उत्थानिका : इदानीं आस्रवस्वरूपमाह - गाथा : आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ।
भावासओ जिणुत्तो दख्वासवणं परो होदि।। 29।। टीका : स विण्णेओ भावासओ जिणुत्तो - स विज्ञेयो भावारूवो जिनोक्तः, कः सम्बन्धी? अप्पणो आत्मनः। स कः? आसवदि जेण कम्मं परिणामेण - आस्रवति कर्म येन परिणामेण दव्यासवणं परो होदि सः भावास्रवो द्रव्यास्रवणे हेतुर्भवति, परिणामेण शुभाशुभरूपेण यदुपार्जितशुभाशुभरूपास्रवः, स एव ज्ञानावरणादिस्वरूपेण परिणत एव द्रव्यास्रवो भवतीत्यर्थः। उत्थानिका : अब आस्रव के स्वरूप को कहते हैं - गाथार्थ : [अप्पणो] आत्मा के [जेण ] जिस [ परिणामेन ] परिणाम से [कम्मं ] कर्म [ आसपदि ] आता है [स] वह [जिणुत्तो ] जिनेन्द्र कथित [ भावासओ] भावास्रव[विण्णेओ] जानना चाहिये [दव्यासवर्ण] द्रव्यास्रव [ परो] अन्य [ होदि ] होता है।। 29 ।।