Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 78
________________ | उत्थानिका : इदानीं भावबन्धद्रव्यबन्धयोः स्वरूपमाह - गाथा : बझदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो।। 32॥ टीका : भावबंधो सो स भावबन्धो भवति। स कः? जेण दु चेदणभावेण येन पुनश्चैतन्यभावेन, बझदि कम्मं बध्यते कर्म, इदरो इतर: द्रव्यबन्धः। स कथंभूतः? कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं कर्मात्मप्रदेशानां परस्पर प्रवेशनम्। उत्थानिका : अब भावबन्ध और द्रव्यबन्ध का स्वरूप कहते हैं - गाथार्थ : [जेण] जिस [ चेदणभावेण ] चैतन्य भावों से [ कम्मं] कर्म [ बन्झदि] बन्धता है, [ सो] वह [ भावबंधो] भावबन्ध है [दुर और[कम्मादपदेसाणं ] कर्म और आत्म प्रदेशों का [अपडोपणपवेसणं ] अन्योन्य प्रवेश होना [इदरो] द्रव्यबन्ध है।। 32 || टीकार्थ : भावबंधो सो वह भावबन्ध होता है, वह कौन? जेण दु चेदणभावेण पुन: जिस चैतन्य भाव से बझदि कम्मं कर्म बंधता है, इदरो इतर, द्रव्यबन्ध, वह कैसा है? कम्मादपदेसाणं अपणोण्णपवेसणं कर्म और आत्मप्रदेशों का परस्पर प्रवेश। भावार्थ : जिन चैतन्यमयी परिणामों से कर्मबन्ध होता है, वह भावबन्ध है। आत्मप्रदेश एवं कर्मों का परस्पर एक दूसरे में प्रवेश होना द्रव्यबन्ध है।। 32॥ उत्थानिका : स च बन्धश्चतुर्विधो भवति । गाथा : पयडिट्ठिदि अणुभागप्पदेसभेदा दु चदुविधो बंधो। जोगापयडिपदेसा ठिदि अणुभागा कसायदो हुंति ॥33॥

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