Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 70
________________ दिव्यसंग है, अत: उसे उपचार से बहुप्रदेशी कहा जाता है। कालाणु में स्कन्ध रूप परिणमन करने की शक्ति नहीं होती, अत: उसे उपचार से भी अस्तिकाय नहीं कहा जाता ।। 26॥ उत्थानिका : इदानीं प्रदेशलाशनगाह - गाथा : जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणुवट्टद्ध। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुद्वाणदाणरिहं ।। 27 ।। टीका : तं खुपदेसं जाणे तं खु स्फुट प्रदेशं जानाम्यहम्। तं कम्? जावदियं आयासं यावत्प्रमाणमाकाशम्। किं विशिष्टम्? अविभागी पुग्गलाणुवदृद्धं - अविभागीकृत पुद्गलद्रव्यस्थानदानयोग्यम्। अत्र पूर्वपक्षः - ननु अविभागीकृतपुद्गलद्रव्येण यावदवष्टब्धं रुद्धमाकाशं तत्प्रदेशमुक्तम्। कथं तावत्प्रदेशे सर्वपदार्थानामवगाहना। अत्रोच्यते, आकाशस्यार्थेवगाहनालक्षणत्वात्तादृशी शक्तिरस्ति, एकस्मिन् प्रदेशे जीवादीनां पञ्चानामपि समवायः समाहितं तथापि तस्य तत्परिणामित्वम्। अयमत्र दृष्टान्तः यथा गुह्यनागनिष्क्रमध्ये सुवर्णलक्षेऽपि प्रविष्टे नागस्य तन्मात्रता, तथाकाशप्रदेशस्याप्यवगाहने तादृशी शक्तिरस्ति। उत्थानिका : अब प्रदेश का लक्षण कहते हैं - गाथार्थ :[जावदियं] जितना[आयासं ] आकाश [ अविभागीपुग्गलाणुववृद्धं ] अविभागी पुद्गल के द्वारा व्याप्त हो [तं] उसे खु] निश्चय से [सव्वाणु हाणदाणरिहं] सम्पूर्ण अणुओं को स्थान देने में समर्थ[ पदेसं ] प्रदेश [ जाणे ] जानो।। 27 ॥ टीकार्थ : तं खु पदेसं जाणे उसे मैं निश्चय से प्रदेश जानता हूँ। उसे | 57....

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