Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 68
________________ दव्यसंगह उत्थानिका : काल का अकायत्व किस प्रकार है? उसे कहते हैं - गाथार्थ : [ जीवे ] जीव में [धमाधम्मे] धर्म-अधर्म में [ असंखा] असंगत ! आयासे ! आळास में [ ] उनन्त युने] पुद्गल में [तिविह ] तीनों ही प्रकार के [पएसा ] प्रदेश[ होति ] होते हैं। [ कालस्य] काल का [ एगो] एक प्रदेश है [ तेण] इसलिए [ सो] वह [ काओ] अस्तिकाय [ण ] नहीं है ।। 25 || टीकार्थ : होति असंखा जीवे धम्माधम्मे एएसा जीव, धर्म और अधर्म के असंख्यात प्रदेश होते हैं। अणंत आयासे आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। मुत्ते तिविह पएसा मूर्तिक पुद्गल के संख्यात, असंख्यात, अनन्त तीनों ही प्रदेश होते हैं। कालस्सेगो काल का एक प्रदेश होता है, क्योंकि कालाणु रत्नराशि के समान स्थित होते हैं। ण तेण सो काओ उस कारण से काल को काय संज्ञा प्राप्त नहीं होती है। भावार्थ : एक जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेशी होते हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है, परन्तु लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है। पुद्गल संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होता है। ये सब बहुप्रदेशी हैं, अत: अस्तिकाय हैं। काल एक प्रदेशी होता है, अत: वह अस्तिकाय नहीं है।। 25 ॥ पाठभेद: पएसा = पदेसा विशेष : टीका में "परमाणूणां रत्नराशिवदवस्थितत्वात्" पाठ पाया गया है। परन्तु वस्तुत: परमाणूणां की जगह कालाणूणां पाठ चाहिये।[सम्पादक] ||25॥ उत्थानिका : अत्रपूर्वपक्षः। ननु पुद्गलपरमाणुरप्येकप्रदेशी, तस्यापि कायत्वानुपपत्तेः। अस्य निराकरणार्थमिदमाह - 55

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