Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 62
________________ का मामला भावार्थ : आकाश के जितने हिस्से में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये पाँच द्रव्य रहते हैं, उतने आकाश को लोकाकाश कहते हैं। लोकाकाश से बाहर का आकाश अलोकाकाश कहलाता है।। 20 ।। .-.-. उत्थानिका : इदानीं कालस्वरूपमाह - गाथा : दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो हु परमट्ठो॥21॥ टीका : पुद्गलकर्माणुद्रव्यप्रच्यवनात् उत्पन्नः समयरूपः, मुख्यकालस्य पर्यायाख्यः क्षणध्वंसीव्यवहारकालः, परिणामादीलक्खो स च व्यवहारकाल: परिणामैर्लक्ष्यते नवजीर्णरूपैः। वट्टणलक्खो हु परमट्ठो द्रव्याणि वर्तनां याति स्वपरिणतिं नयति, तदेव लक्षणस्य स वर्तनालक्षणः हु पुनः परमट्ठो परमार्थकालः, अयं उक्तो ज्ञायते, कालः, इति लोकवचनात् । स च नित्योऽन्यथा कथं द्रव्यवत्ता? उत्थानिका : अब काल का स्वरूप कहते हैं - गाथार्थ : [जो ] जो [दव्यपरिवट्टरूवो] द्रव्यों के परिवर्तन स्वरूप है [सो] वह [ कालो] काल[ हवेइ ] है। [ परिणामादीलक्खो ] परिणामादि लक्षण वाला [ववहारो ] व्यवहार काल है। [हु] और [ वट्टणलक्खो ] वर्तना लक्षण वाला [ परमट्ठो] परमार्थ काल है। 211 टीकार्थ : पुद्गल कर्माणु द्रव्य के प्रच्यवन से उत्पन्न समयरूप मुख्य काल की पर्याय क्षणध्वंसी व्यवहार काल है। परिणामादीलक्खो वह व्यवहार काल परिणाम के द्वारा नवीनता और जीर्णता रूप से देखा जाता है। वट्टणलक्खो हु परमट्टो द्रव्यों की वर्तना कराता है, स्व-परिणति को प्राप्त | कराता है, उसी लक्षण वाला वह वर्तना हु पुन: परमट्ठो परमार्थ काल है, ऐसा | 49

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