Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ दव्वसंगठ भावार्थ: जो जीव, पदगल धर्म, अधर्म और काल द्रव्य को अवकाश [ ठहरने के लिए स्थान ] प्रदान करता है, वह आकाश द्रव्य है। उस के लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो भेद हैं ।। 19 ॥ जीवादीणं । पाठभेद : जीवाईणं जोन्हं = = उत्थानिका : लोकालोकप्रकारेण द्विप्रकारं भवतीत्याह गाथा : धम्माधम्माकालो पुग्गलजीवा य संति जावदिए । आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ 20 ॥ - || 19 || टीका : सो लोगो सः लोको भवति । सः कः ? जावदिए आयासे संति यावत्परिमाणे आकाशे सन्ति विद्यन्ते । के ते? धम्माधम्माकालो धर्माधर्मकालाः । न केवलमेते पुग्गलजीवा य पुद्गलजीवाश्च तत्तो परदो अलगुत्तो तस्मात् परो अलोक उक्तः । - उत्थानिका : लोक और अलोक के भेद से आकाश दो प्रकार का है, ऐसा कहते हैं गाथार्थ : [ जावदिये ] जितने [ आयासे ] आकाश में [ धम्माधय्मा ] धर्म, अधर्म [ कालो ] काल [य] और [ पुग्गलजीवा ] पुद्गल, जीव [ संति ] हैं [ सो ] वह [ लोगो ] लोक है। [ तत्तो ] उस से [ परदो ] परे [ अलोग ] अलोक [ उत्तो ] कहा गया है || 20 | 48 टीकार्थ: सो लोगो वह लोक है, वह कौन ? जावदिए आयासे संति जितने आकाश में हैं, कौन विद्यमान हैं? धम्माधम्माकालो धर्म, अधर्म और काल । केवल ये ही नहीं है, घुग्गलजीवा य पुद्गल और जीव । तत्तो परदो अगुत्तो उस के पश्चात् अलोक कहा गया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121