Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 60
________________ दव्यसंगा पाठभेद: ठाणजुयाण अहम्मो ठाणजुदाण अधम्मो। 18। उत्थानिका : इदानीं पञ्चानामपि द्रव्याणामवकाशदाने आकाशद्रव्यं भवतीत्याह - गाथा : अवगासदाणजोग्गं जीवाईणं वियाण आयासं। जोण्हं लोगागासं अल्गागासमिदि दुविहं॥19॥ टीका : वियाण विशेषेण जानीहि त्वं हे भव्य! किं तत्? आयासं आकाशम्। कथंभूतम्? अवगासदाणजोग्गं अवकाशदानयोग्य, केषाम्? जीवाईणं जीवादाला पञ्चानानां तदाकासम्, जो जनमी, दुविहं द्विप्रकारम्। कथम्? लोगागासं आलोगागासमिदि लोकाकाशमलोकाकाशमिति, तदेवाकाशद्रव्यम्। उत्थानिका : इन पांचों ही द्रव्यों को अवकाश देने के लिए आकाश द्रव्य होता है, ऐसा कहते हैं - गाथार्थ : [ जीवाईणं जीवादिकों को [ अवगासदाणजोग्गं] अवकाश दान के योग्य [ जोण्हं ] जिनेन्द्र कथित [ आयासं ] आकाश [ वियाण] जानो [ लोगागासं ] लोकाकाश [ अगागासं] अलोकाकाश [इदि] इस प्रकार [ दुविहं ] दो प्रकार का है।। 19॥ टीकार्थ : वियाण हे भव्य ! तुम विशेष रूप से जानो। किस को जानो? आयासं आकाश को, वह आकाश कैसा है? अवगासदाणजोग्गं अवकाश दान के योग्य, किन को? जीवाईणं जीवादि पाँचों ही द्रव्यों को, वह आकाश है। जोण्हं जैनमत में दुविहं दो प्रकार का, कैसे? लोगागासं अगागासमिदि लोकाकाश और अलोकाकाश, वही आकाश द्रव्य है। . ___471

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