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'देव्वसंगह
दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, चारित्र
ये नौ जीव के स्वभाव हैं।
चौरासी लाख गुणों के अधिपति, जिन के अशेष योग निरोध को प्राप्त हो चुके हैं, वे अयोगकेवली हैं।
ये चौदह गुणस्थान होते हैं।
भावार्थ : अशुद्धनय से जीव चौदह गुणस्थान एवं चौदह मार्गणास्थानों की अपेक्षा से चौदह - चौदह भेद वाले हैं।
शुद्धनय की अपेक्षा से सभी जीव शुद्ध हैं। 13 ॥
विशेष : टीकाकार ने औदारिक- औदारिक मिश्र व परमौदारिक ऐसे तीन भेद किये हैं । काययोग के सात भेदों में परमौदारिक काययोग नहीं है।
[जिन का वर्णन टीका में छूट गया है, उन का व्याख्यान]
आहारक मिश्र काययोग आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक के काययोग को आहारक मिश्र कहते हैं। परमऋद्धि संपन्न छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों को ही यह काययोग होता है।
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कार्मणकाययोग : कार्मण शरीर के निमित्त से होने वाले योग को कार्मण काययोग कहते हैं । यह काययोग विग्रह गति में तथा लोकपूरण और प्रतर समुद्घात में होता है।
वेदमार्गेणा : वेद कर्म की उदीरणा होने पर जीव स्त्रीभाव- पुरुषभाव और नपुंसक भाव का वेदन करता है। उस वेद कर्म के उदय से होने वाले भाव को वेद कहते हैं।
वेद के तीन भेद हैं- पुंवेद स्त्रीवेद और नपुंसक वेद । नारकी जीव और सम्मूर्च्छिम जीव नपुंसक वेदी होते हैं।
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