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व्यसंगह। अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ-मिथ्यात्व-सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपमिक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। यहाँ सम्यक्त्व के आवरण का उपशम है। सम्यक्त्व के मूल कारणों का उपशम नहीं है।
इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यग्दष्टि होता है।
अनन्तानुबन्धी आदि छह के उदयाभाव से क्षय, सदवस्था रूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
सम्यक्त्व से पतित होने पर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, ऐसा जो जीव अन्तराल में विद्यमान है, वह सासादन सम्यग्दृष्टि है।
सभी देव वन्दनीय है, कोई निन्दनीय नहीं है, ये मिश्रपरिणाम जिस के हैं, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है।
आप्त-आगम-पदार्थों में विपरीत श्रद्धान करने वाला मिथ्यादृष्टि है।
सपिण मन के बल से शिक्षा व वचन का ग्रहण करने वाला संज्ञी है, उस से विपरीत जीव असंज्ञी है। सिद्ध संज्ञी और असंज्ञीत्व से रहित हैं। __ आहारे विग्रहगति प्राप्त जीव, समुद्घात केवली, अयोगी और सिद्ध अनाहारक होते हैं। शेष जीव आहारक होते हैं।
इस प्रकार चौदह मार्गणाओं का व्याख्यान किया गया। गुणठाणेहि य चौदह गुणस्थानों के द्वारा जीवों का ज्ञान करना चाहिये। जिस की आप्त-आगम-पदार्थों में अरुचि है, वह मिथ्यादृष्टि है।
सम्यक्त्व को छोड़ कर मिथ्यात्व प्रासि के अन्तराल में जो स्थित है, वह सासादन सम्यग्दृष्टि है।
सभी देव वन्दनीय हैं, कोई निन्दनीय नहीं हैं, ऐसा मानने वाला सम्यग्मिध्यादृष्टि है।
प्राणी और इन्द्रियों के संयम से अविरत, श्रद्धान युक्त जीव असंयत सम्यग्दृष्टि है।
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