Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ व्यसंगाह चंदणकम्माण चेतन कमों का, क्रोधादिकों का कर्ता है। सुद्धणया शुद्ध नय की अपेक्षा से सुद्धभावाणं शुद्ध भावों का, अनन्त दर्शन-ज्ञान वीर्यसुख इन गुणों के उत्तरोत्तर प्रकृष्ट परिणामों का कर्ता है।। 8 ।। भावार्थ : व्यवहार नय से आत्मा पुद्गल कर्मों का [द्रव्य कर्मों का] कर्ता है। अशुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से आत्मा क्रोधादि चेतन कर्मों का [भाव कर्मों का] कर्ता है। शुद्ध निश्चय नय से आत्मा अपने शुद्ध भावों का कर्त्ता है।। 8॥ उत्थानिका : स च व्यवहारभोक्ता भवतीत्याह - गाथा : ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पधुंजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स॥9॥ | टीका : स आदा पधुंजेदि स आत्मा प्रभुङ्क्ते। किं तत् ? पुग्गलकम्मप्फलं पुद्गलसम्बन्धात्कर्मणः फलं सः चेतनानां कर्मणामित्यर्थः। किं फलम्? सुहदुक्खं सुखं दुःखं च भुङ्क्ते। कदा भुङ्क्ते? ववहारा व्यवहारनयापेक्षया, णिच्छयदो निश्चयनयापेक्षया पुनः चेदणभाव खु आदस्स आत्मनः परमानन्दस्वरूपतामुपभुङ्क्ते स्फुटम्। उत्थानिका : वह व्यवहार से भोक्ता होता है, ऐसा कहते हैं - गाथार्थ : [आदा ] आत्मा [ववहारा ] व्यवहार से [ सुहदुक्खं ] सुख-दुःख रूप [ पुग्गलकम्मफलं ] पुद्गल कर्मफलों को [ णिच्छयणयदो] निश्चयनय से [आदस्स ] आत्मा के [चेदणभावं] चैतन्य भाव को [खु] निश्चयतः [ प जेदि ] भोगता है।। 9॥ टीकार्थ : स आदा पभुंजेदि वह आत्मा भोक्ता है। क्या भोगता है? |

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121