Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 31
________________ [दव्धसंगह पुग्गलकम्मप्फलं पुद्गल के सम्बन्ध से कर्मों के फल का, वह आत्मा चैतन्य कर्मों का भोक्ता है, यह अर्थ है। क्या फल है ? सुहदुक्खं सुख और दुःख को भोगता है। कब भोगता है? ववहारा व्यवहार नय की अपेक्षा से, पिच्छयदो पुनः निश्चय नय की अपेक्षा से चेदणभावं खु आदस्स आत्मा के परमानन्द स्वरूप का निश्चय से उपभोक्ता है ।। 9 ॥ भावार्थ : आत्मा व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों के फल सुख-दुःखों का भोक्ता है। आत्मा निश्चय नय से अपने चैतन्यमयी भावों का भोक्ता है ॥ 9 ॥ उत्थानिका : स आत्मा व्यवहारपरमार्थापेक्षयेत्थं प्रमाण इति वदन्नाहगाथा : अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । ★ असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥ 10 ॥ टीका : चेदा अणुगुरुदेहपमाणो, स आत्मा व्यवहारनयमासृत्य सूक्ष्मस्थूलदेहप्रमाणो यदा कर्मवशात् कुन्थुपर्यायं ग्रह्णाति तदा तद्देहप्रमाणः यदा हस्तिप्रमाणं पर्यायं गृह्णाति तदा तद्देहप्रमाणः । कुत: ? उवसंहारप्पसप्पदो उपसंहारप्रसर्पणतः, यत उपसंहारविस्तारधर्मो ह्यात्मा । कोऽत्र दृष्टान्तः ? यथा प्रदीपो महद्भाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनान्तरं प्रकाशयति, लघुभाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनान्तरं प्रकाशयति इति । किन्तु असमुहदो समुद्घातसतकं वर्जयित्वा तत्राणुगुरुत्वाभावः । समुद्घातभेदानाह - वेयण - कसाय - विउव्वण तह मारणंतिओ समुग्धाओ । तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवलीणं तु ॥ 18 [गो. जी. 667]

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