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दश्वसंगह। भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं। पर्याप्तक जीवों को पाँच पर्याप्तियाँ होती है। मन नहीं होता। अपर्याप्तक को पूर्ववत् चार पर्याप्तियाँ होती है।
पंचेन्द्रिय असंज्ञी तिर्यंच के नौ प्राण होते हैं, पूर्वोक्त आठ और श्रोत्रेन्द्रिय। ये जीव पर्यासक और अपर्यासक होते हैं। असंज्ञी पर्याप्तक जीवों को पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं, मन नहीं होता। अपर्यातक जीवों को पूर्ववत् चार पर्याप्तियाँ होती है।
पंचेन्द्रिय संज्ञी के दस प्राण होते हैं, पूर्वोक्त नौ और मनोबल। ये जीव पर्याप्तक और आशिल होते हैं। वर्मारक जीनों सी का पई नयाँ होती है। अपर्याप्तक जीवों की चार पर्याप्तियाँ होती है। भाषा और मन का अभाव होता
वे जीव समनस्क और अमनस्क होते हैं - ऐसा कहते हैं, समणा अमणा णेया पंचिदिय समनस्क और अमनस्क होते हैं। उस में तिर्यंच समनस्क और अमनस्क होते हैं। जो अमनस्क हैं, वे गोरखरादि जालन्धर
और मेरु आदि देशों में देखे जाते हैं। णिम्मणा परे सव्वे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय मन रहित होते हैं। शंका : वे जीव अमनस्क तब कहलाते हैं, जब उन के पंचेन्द्रियों की अप्रवृत्ति होती हो, क्योंकि मनःपूर्वक ही इन्द्रियों की प्रवृत्ति होती है, ऐसा शास्त्र का वचन है। समाधान : यहाँ उत्तर देते हैं - सभी जीवों को स्वभाव से ही आहारभय-मैथुन-परिग्रह रूप चार संज्ञाएँ होती हैं - ऐसा प्रतीति में आता है। जैसे वृक्ष की वृद्धि जलसिंचन से होती है, कुल्हाड़ी और पुरुष आदि को देखने से वृक्ष में कम्पन होता है, स्त्रियों के पाद प्रहार से पुष्प खिलते हैं, वृक्ष मूल धन की ओर बढ़ते हैं। इसलिए उन की मनोव्यापार से रहित प्रवृत्ति होती है। पुनः कहते हैं कि -
उन को [ असंज्ञियों को] सर्वथा मन का अभाव हो, ऐसा नहीं है किन्तु | मन शक्ति रूप से नहीं है। किस कारण से? पूर्वोपार्जित मतिज्ञानावरण
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