Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 41
________________ भास कर्मोदय के वश से। यदि सर्वथा मन का अभाव कहा जायेगा, तो अन्य जन्म में मनुष्य पर्याय ग्रहण करने पर भी मन रहितता का प्रसंग आयेगा, ऐसा होने पर सर्वज्ञ के वचन का विरोध होगा। क्योंकि देव-मनुष्य और नारकी समनस्क होते हैं ऐसा आगम में प्रतिपादित किया गया है। तिर्यंचों में समनस्कता और अमनस्कता रूप दोनों ही विकल्प हैं। इसलिए कर्मोदयवशात् व्यवहार नय की अपेक्षा से उन का अमनस्कत्व है, परमार्थ से नहीं। ऐसा सिद्ध होता है। भावार्थ : पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव स्थावर हैं तथा दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस हैं। जीव समास चौदह हैं - एकेन्द्रिय के बादर सूक्ष्म, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय व पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी। ये सातों ही पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं।। 11, 12।। पाठभेद: बायर - बादर इंदिय - इंदी।। 11, 12॥ विशेष : टीकाकार के द्वारा बारहवीं गाथा को द्वितीय पंक्ति की टीका नहीं की गई है। [सम्पादक] उत्थानिका : मार्गणागुणस्थानैः संसारिणो ज्ञातव्या इत्याह - गाथा : मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥13॥ टीका:ते च जीवा चतुर्दशमार्गणाभिश्चतुर्दशगुणस्थानैश्च ज्ञातव्या भवन्ति । कथंभूताः? संसारिणा। कदा? असुद्धणया अशुद्धनयापेक्षया, हु 528

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