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दव्यसंगह उत्थानिका : स च जीवो मूर्तिर्भवत्यमूर्तिश्चेत्याह – गाथा : वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे।
णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो॥7॥ टीका : सो जीवो अमुत्ति तदो अमूर्तिः ततः, कारणाद्यस्मान्नो सन्ति नैव विद्यन्ते। के ते? वण्णरसपंच गंधा दो फासा अट्ठ वर्णाः पञ्च रक्तपीतनीलकृष्णश्वेताः। रसाः पञ्च कटुतिक्तकषायमधुरलवणाम्लाः। गन्धौ द्वौ सुरभिदुरभिश्च। स्पर्शा: अष्ट मृदुकर्कशगुरुलघुस्निग्धरूक्षशीतोष्णाः एते न सन्ति, कदा न सन्ति? णिच्छया निश्चयनयापेक्षया, ववहारा व्यवहारनयापेक्षया पुनः मुत्ति मूर्तियुक्तः उक्तः। बंधादो कर्मनोकर्मबन्धवशात्। उत्थानिका : वह जीव मूर्तिक और अमूर्तिक है, ऐसा कहते हैं - गाथार्थ : [णिच्छया ] निश्चय से [ जीवे ] जीव में [पंच वण्ण ] पाँच वर्ण [पंच रस] पाँच रस [ दो गंधा ] दो गन्ध [ अट्ठ फासा ] अष्ट स्पर्श [णो] नहीं [ संति ] है। [तदो] इसलिए[ सो] वह [ अमुत्ति ] अमूर्तिक है। [ववहारा ] व्यवहार से [ बंधादो] बन्ध के कारण [मुत्ति] मूर्तिक है।।7।। टीकार्थ : वह जीव अमुत्ति तदो उस कारण से अमूर्तिक है। इस में कोई कारण नहीं है। वे कौन हैं? वण्ण रस एंच गंधा दो फासा अट्ठ वर्ण पाँच हैं, लाल-पीला-नीला-काला और सफेद। रस पाँच हैं, कडुआ-तीखाकसायला-मधुर और लवणाम्ल। गन्ध दो हैं, सुरभि और दुरभि। स्पर्श आठ हैं, मृदु-कर्कश-गुरु-लघु-स्निग्ध-रूक्ष-शीत-ऊष्ण। ये नहीं होते हैं। कब नहीं होते हैं? णिच्छया निश्चय नय की अपेक्षा से ववहारा पुनः व्यवहार नय की अपेक्षा से मुत्ति मूर्तिक है, ऐसा कहा गया है। बंधादो कर्म और नो
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