Book Title: Dravyasangrah
Author(s): Nemichandramuni
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 27
________________ [दव्वसंगह व्यवहारनयापेक्षया । किं लक्षणम् ? अट्ठ चदु णाणदंसण अष्टप्रकारं ज्ञानं चतुःप्रकारं दर्शनम्, एते व्याख्येते प्रागेव । सुद्धं पुण दंसणं णाणं शुद्धनयापेक्षया शुद्धं पुनर्दर्शनं ज्ञानं च दृष्टत्वं ज्ञातृत्वं च । , उत्थानिका : उस जोव के सामान्य से व्यवहार लक्षण और विशेष से निश्चय लक्षण को कहते हैं - गाथार्थ : [ ववहारा] व्यवहार से [ अट्ठचदुणाणदंसण ] आठ ज्ञान और चतुर्विध दर्शन को [ सामण्णं ] सामान्य से [ जीवलक्खणं ] जीव का लक्षण [ भणियं ] कहा है। [ पुण] पुनः [ सुद्धणया ] शुद्धनय से [ सुद्धं ] शुद्ध [ दंसणं ] दर्शन[ शाणं ] ज्ञान [जीव का लक्षण कहा गया है ] || 6 || टीकार्थ: जीवलक्खणं भणियं जीवों का लक्षण यानि स्वभाव कहा गया है । किस प्रकार ? सामण्णं सामान्य । इस का यह अर्थ है कि किन्हीं को शक्ति रूप से, किन्हीं को व्यक्ति रूप से विद्यमान होता है। सामान्य कब होता है? ववहारणया व्यवहार नय की अपेक्षा से क्या लक्षण है ? अट्ठचदुणाणदंसण आठ प्रकार का ज्ञान, चार प्रकार का दर्शन। इन का व्याख्यान पूर्व में किया जा चुका है। सुद्धं पुण दंसणं णाणं शुद्धनय की अपेक्षा से पुनः शुद्ध दर्शन और ज्ञान, दृष्टत्व और ज्ञातृत्व ॥ 6 ॥ भावार्थ : आठ प्रकार का ज्ञान और चार प्रकार का दर्शन व्यवहार नय से जीव का लक्षण है। शुद्ध ज्ञान और दर्शन निश्चय नय से जीव का लक्षण #1161 विशेष : टीकाकार ने टीका में ववहारा की जगह ववहारणया पाठ का प्रयोग किया है। परन्तु छन्द की दृष्टि से ववहारा पाठ ही उचित है। [ सम्पादक ] 14

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