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दिव्यसंगह
सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार का है।
विशिष्ट क्षयोपशम के कारण मन के साथ पर मन में स्थित अर्थ को जो जानता है, वह मन:पर्यय ज्ञान है। उस के ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो भेद हैं।
ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय रूप घातिकर्म के निर्मूल रूप से उन्मूलन करने से, वेदनीय - आयु-गोत्र - नाम कर्म के दग्धरज्जु के समान स्थित रहने पर जो उत्पन्न होता है, जो त्रैलोक्य के उदर में स्थित समस्त वस्तुओं को युगपत् जानता है, सकल पदार्थों का प्रकाशक है, असहाय है, वह केवलज्ञान है।
इन में मति श्रुत परोक्षज्ञान हैं, अवधि और मन:पर्यय देशप्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है ॥ 5 ॥
भावार्थ : मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, अवधि अज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ये ज्ञानोपयोग के 8 भेद हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से ज्ञानोपयोग के दो भेद भी हैं । 5 ॥
पाठभेद : केवलमह
केवलमवि ॥ 5 ॥
उत्थानिका : तस्य जीवस्य सामान्येन व्यवहारलक्षणं विशेषेण निश्चयलक्षणं चाह -
गाथा : अड्ड चदु णाणदंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्रणया सुद्धं पुण दंसणं णाणं ॥ 6 ॥
टीका: जीवलक्खणं भणियं जीवानां लक्षणं स्वभावो भणितम् । कथंभूतम् ? सामण्णं सामान्यम् । अयमर्थः केषांचित् शक्तिरूपेण केषांचिद् व्यक्तिरूपेण विद्यमानत्वात् । कदा? सामान्यम् ? ववहारणया
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