Book Title: Dravyasangrah Author(s): Nemichandramuni Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 9
________________ 27 दव्यसंगहा - 3. विवहारा 4. आयासो ववहारा। आया। कुछ पाठभेद अर्थ भेद की सूचना देते हैं। यथा - 1. झाणे झाऊण - झाणे पाठणदि। [गाथा - 47] 2. संति जदो ते णिच्वं - संति जदो तेणेदे। [गाथा - 24] 3. तं सम्म परम चारित्तं . तं परमं सम्मचारित। [गाथा - 46] पाठभेदों की संख्या अधिक है। अत: प्रत्येक गाथा के नीचे प्राप्त पाठभेदों का उल्लेख किया गया है। इस से पढ़ने वालों को काफी सुविधा होगी तथा यह प्रयत्न शोधकार्य के लिए भी सहायक बन सकेगा। __ ग्रंथ की भाषा : प्राकृत भाषा क्षेत्रीय प्रभावों के कारण अनेक भागों में विभक्त है। यथा - अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पिशाची आदि। दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत में लिपिबद्ध हैं। शौरसेनी प्राकृत में जो नियम हैं, उन के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बर जैनागम के अनेकों शब्दों में नाविन्य है। जैसे - अर्धमागधी व शौरसेनी प्राकृत में सव्वण्णु शब्द का प्रयोग पाया जाता है। यही कारण है कि दिगम्बर परम्परा के प्राकृत ग्रंथों की भाषा का अध्ययन करने के उपरान्त डॉ. पिशेल ने इस भाषा को जैन शौरसेनी यह विशेष नाम प्रदान किया है। संस्कृत के नाटकों में भी यह भाषा प्रयोग में आयी अत: यह स्वतः स्पष्ट है कि दव्वसंगह की भाषा जैन शौरसेनी है। यह भाषा अत्यन्त मधुर है। यही कारण है कि इस ग्रंथ को पुन: पुन: पढ़ने के लिए मन लालायित रहता है। __ सम्पादन का आधार : इस टीका का नाम हमने आरा जाने से पूर्व कभी नहीं सुना था। आरा में चातुर्मास से पूर्व कुछ दिन हम जैन बाला विश्राम में भगवान बाहुबली के दर्शनों का लाभ ले रहे थे, वहाँ पर डॉ. गोकुलचन्द जैन ने हमें यह प्रति स्वाध्यायार्थ प्रदान की। इस ग्रंथ का प्रकाशन सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने किया है। इस ग्रंथ का प्रकाशन डॉ, गोकुलचन्द जैन एवं डॉ. ऋषभचन्द जैन के सम्पादन में 1989 में हुआ था। यह प्रकाशन हिन्दी अनुवाद से युक्त नहीं है। इस की प्रस्तावना में लिखा हुआ है कि इसे जैन सिद्धान्त भवन से प्रास पाण्डुलिपि के आधार से EROPage Navigation
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