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दव्यसंगह
[अमुत्ति ] अमूर्तिक [कत्ता] कर्ता [ सदेहपरिमाणो ] स्वदेह परिमाण [ भोत्ता] भोक्ता [ संसारथो] संसारस्थ [ सिद्धो] सिद्ध [ विस्ससा] स्वभाव से [उड्ढगई ] ऊर्ध्वगामी है।। 2 ।। टीकार्थ : जीवो जीव चेतनालक्षण वाला तथा स्व-पर रूप संवेदक है तथा उवओगमओ उपयोगमय, ज्ञान-दर्शन लक्षण वाले उपयोग से युक्त है। इस से ज्ञानादि प्रकृतिगुण नष्ट होता है, मोक्ष में ज्ञान का अभाव होता है, इस मत को निराकृत किया गया। तथा अमुनि अमूर्ति, कर्म नो-कर्म के साथ सदा सम्बन्ध होते हुए भी मूर्तिकता स्वकीय स्वभाव नहीं है, क्योंकि अमूर्त स्वभाव का परित्याग नहीं होता है। तथा कत्ता कर्त्ता, किन्हीं कर्मों का और उस के निमित्त से होने वाले आत्मपरिणामों का कर्ता है। इस कथन से ही आत्मा कर्मों का कर्त्ता नहीं है, ऐसा एकान्त निरस्त हो गया। तथा सदेहपरिणामो नाम कर्मोदय के वश से उत्पन्न अणु और महत् शरीर प्रमाण है, न न्यून है और न आंधक है। इस से आत्मा का सवंगतत्व और वटकणिका मात्र पने का निषेध हुआ। तथा भोत्ता भोक्ता, किन्हीं शुभाशुभकर्मों से सम्पादित इष्ट-अनिष्ट विषयों का और उस से उत्पन्न सुख-दुःख परिणामों का भोक्ता है। तथा संसारत्थो त्रस और स्थावरपर्याय से युक्त संसार में संसरण करता है। तथा सिद्धो सो वह पूर्वकथित आत्मा सकल कर्मों का क्षय कर के सिद्ध होता है। पुनः क्या विशेषता है? विस्ससोडगई सिद्ध हो कर विश्व के, त्रैलोक्य के ऊर्ध्व जाता है अथवा स्वभाव से ऊर्ध्व जाता है। किस प्रकार? एरण्ड बीज के समान, अग्नि शिखा के समान, जल में तुम्बी के समान। इस से जहाँ से मुक्त होते हैं, वहीं स्थित रहते हैं, यह मत निरस्त हो गया।
यहाँ औदारिक-वैक्रियिक-आहारक तैजस-कार्मण शरीर नो कर्म हैं।। 2 ॥