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एस धम्मो सनंतनो
लगेगा, अंतहीन है, कयामत की रात है, समाप्त ही नहीं होती मालूम होती। सुबह होगी या न होगी, संदेह हो जाता है, कि कहीं ऐसा तो न हो कि अब सूरज उगे ही न! मृत्यु पास हो तो समय बहुत लंबा हो जाता है। तुमने भी अनुभव किया होगा कि समय का बोध तुम्हारे मन पर निर्भर है।
यात्रा का लंबा होना या छोटा होना, कोस की दूरी भी तुम्हारे मन पर निर्भर है। कोस तो उतना ही है। दो पत्थर लगे हैं कोस के, उनके बीच में फासला उतना ही है। लेकिन तुम प्रेयसी से मिलने जाते हो तो तुम्हारे पैरों में एक गुनगुनाहट होती है। तुम्हारे भीतर घूघर बजते हैं। तो कोस ऐसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। और अगर तुम कोई दुखद समाचार सुनने जा रहे हो, कोई पीड़ाजनक घटना का साक्षात करने जा रहे हो, तो कोस बड़ा लंबा हो जाता है।
एक तो कोसा है बाहर और एक कोस का मापदंड है भीतर। बाहर का कोस असली बात नहीं है, असली बात तो भीतर का कोस है। असली बात तो भीतर का समय है।
इसीलिए ठीक इसी दुनिया में जो आनंद से जीने का ढंग जानते हैं, उनकी जिंदगी की यात्रा और ही होती है। और जिन्होंने दुख से जीने की आदत बना ली है, उनकी जीवन-यात्रा स्याह रात हो जाती है, अंधेरी रात हो जाती है।
तुम पर निर्भर है। तुम अपने चारों तरफ जो अनुभव कर रहे हो, वह तुम पर निर्भर है। वस्तुतः तुम ही उसके स्रष्टा हो। तुमने जो जिंदगी पाई है, वैसी जिंदगी पाने का तुमने उपाय किया है-जानकर या अनजाने में। तुमने जो मांगा था, वही मिला है। तुमने जो चाहा था, वही हुआ है। अगर अंधेरी रात ने तुम्हें घेरा है, तो तुम्हारे जीने का ढंग ऐसा है, जिसमें अंधेरा बड़ा हो जाता है। अगर तुम्हें प्रकाश ने, रोशनी ने घेरा है, अगर तुम्हारी जिंदगी में नृत्य है और गीत है, तो तुम्हारे जीने के ढंग पर निर्भर है।
इसी जमीन पर बुद्ध पुरुष चलते हैं, कोस मिट जाते हैं, समय शून्य हो जाता है। इसी जमीन पर बुद्ध पुरुष चलते हैं, संसार कहीं राह में आता ही नहीं। - इसी जमीन पर तुम चलते हो, तुम मंदिर में भी पहुंच जाओ तो दुकान में ही पहुंचते हो। मंदिरों का सवाल नहीं, तुम्हारा सवाल है। अंततः तुम्ही निर्णायक हो। तुम्हारी जिंदगी तुमसे निकलती है। जैसे वृक्ष से पत्ते निकलते हैं, ऐसे ही तुम्हारी जिंदगी तुमसे निकलती है।
यह सूत्र बहुमूल्य है।
दीघा जागरतो रत्ति।
'वह जो जागता है, उसकी रात लंबी हो जाती है।'