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भारतीय चिन्तन में मोक्ष और मोक्ष-मार्ग | ११
उसका निरन्तर क्षण प्रवाह माने तभी बौद्ध दर्शन की मोक्षकालीन मान्यता संगत बैठ सकती है। यदि वे इस प्रकार मानते हैं तो जनदर्शन की मान्यता के अत्यधिक सन्निकट है।
मुक्त ब्रह्मभूत या निर्वाण-प्राप्त आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में चिन्तन के पश्चात् यह प्रश्न है कि विदेह मुक्ति प्राप्त करने के पश्चात् आत्मा कौन-से स्थान पर रहता है क्योंकि चेतन या अचेतन जो द्रव्य रूप है उसका स्थान अवश्य होना चाहिए।
दार्शनिकों ने प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर मान्यता भेद होने से विविध दृष्टियों से दिया है।
न्याय-वैशेषिक, सांख्य और योग जिस प्रकार आत्मा को व्यापक मानते हैं उसी प्रकार अनेक आत्मा मानते हैं, वे आत्म-विभुत्ववादी भी हैं और आत्म बहुत्व. वादी भी हैं । उनकी दृष्टि से मुक्त अवस्था का क्षेत्र सांसारिक क्षेत्र से पृथक नहीं है। मुक्त और संसारी आत्मा में अन्तर केवल इतना ही है कि जो सूक्ष्म शरीर अनादि अनन्तकाल से आत्मा के साथ लगा था, जिसके परिणामस्वरूप नित्य-नूतन स्थूल शरीर धारण करना पड़ता था, उसका सदा के लिए सम्बन्ध नष्ट हो जाने से स्थूल शरीर धारण करने की परम्परा भी नष्ट हो जाती है । जीवात्मा या पुरुष परस्पर सर्वथा भिन्न होकर मुक्ति दशा में भी अपने-अपने भिन्न स्वरूप में सर्वव्यापी है।।
__ केवलाद्वैतवादी ब्रह्मवादी भी ब्रह्म या आत्मा को व्यापक मानते हैं किन्तु न्यायवैशेषिक, सांख्य और योग के समान जीवात्मा का वास्तविक बहुत्व नहीं मानते । उनका मन्तव्य है कि मुक्त होने का अर्थ है सूक्ष्म शरीर या अन्तःकरण का सर्वथा नष्ट होना, उसके नष्ट होते ही उपाधि के कारण जीव की ब्रह्मस्वरूप से जो पृथकता प्रतिभासित होती थी, वह नहीं होती। तत्त्व रूप से जीव ब्रह्म स्वरूप ही था, उपाधि नष्ट होते ही वह केवल ब्रह्म स्वरूप का ही अनुभव करता है । मुक्त और संसारी आत्मा में अन्तर यही है कि एक में उपाधि है, दूसरे में नहीं है । उपाधि के अभाव में परस्पर भेद नहीं है, वह केवल ब्रह्मस्वरूप ही है ।
अणुजीवात्मवादी वैष्णव परम्पराओं की कलानाएँ पृथक-पृथक हैं । रामानुज विशिष्टाद्वैती हैं। वे वस्तुत: जीव-बहुत्व को मानते हैं किन्तु जीव का परब्रह्म वासुदेव से सर्वथा भेद नहीं है । जब जीवात्मा मुक्त होता है तब वासुदेव के धाम वैकुण्ठ या ब्रह्मलोक में जाता है, वह वासुदेव के सान्निध्य में उसके अंश रूप से उसके सदृश होकर रहता है।
मध्व जो अणुजीववादी है वे जीव को परब्रह्म से सर्वथा भिन्न मानते हैं । किन्तु मुक्त जीव की स्थिति विष्णु के सन्निधान में अर्थात् लोक विशेष में कल्पित करते हैं।
शुद्धाद्वैती वल्लभ भी अणुजीववादी हैं किन्तु साथ ही वे परब्रह्म परिणामवादी हैं। उनका मन्तव्य है कि कुछ भक्त जीव ऐसे हैं जो मुक्त होने पर अक्षर
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